केवल रवि किरणों से जिसकाए सम्पूर्ण प्रकाशित है अंतर उस श्री जिनवाणी में होताए तत्त्वों का सुंदरतम दर्शन सद्दर्शन बोध चरण पथ परए अविरल जो बड़ते हैं मुनि गण उन देव परम आगम गुरु को ए शत शत वंदन शत शत वंदन इन्द्रिय के भोग मधुर विष समए लावण्यामयी कंचन काया यह सब कुछ जड़ की क्रीडा है ए मैं अब तक जान नहीं पाया मैं भूल स्वयं के वैभव को ए पर ममता में अटकाया हूँ अब निर्मल सम्यक नीर लिए ए मिथ्या मल धोने आया हूँ जड़ चेतन की सब परिणति प्रभुए अपने अपने में होती है अनुकूल कहें प्रतिकूल कहेंए यह झूठी मन की वृत्ति है प्रतिकूल संयोगों में क्रोधितए होकर संसार बड़ाया है संतप्त हृदय प्रभु चंदन समए शीतलता पाने आया है उज्ज्वल हूँ कंठ धवल हूँ प्रभुए पर से न लगा हूँ किंचित भी फिर भी अनुकूल लगें उन परए करता अभिमान निरंतर ही जड़ पर झुक झुक जाता चेतनए की मार्दव की खंडित काया निज शाश्वत अक्षत निधि पानेए अब दास चरण रज में आया यह पुष्प सुकोमल कितना हैए तन में माया कुछ शेष नही निज अंतर का प्रभु भेद काहूँए औस में ऋजुता का लेश नही चिन्तन कुछ फिर संभाषण कुछए वृत्ति कुछ की कुछ होती है स्थिरता निज में प्रभु पाऊं जोए अंतर का कालुश धोती है अब तक अगणित जड़ द्रव्यों सेए प्रभु भूख न मेरी शांत हुई तृष्णा की खाई खूब भारीए पर रिक्त रही वह रिक्त रही युग युग से इच्छा सागर मेंए प्रभु ! गोते खाता आया हूँ चरणों में व्यंजन अर्पित करए अनुपम रस पीने आया हूँ मेरे चैत्यन्य सदन में प्रभु! चिर व्याप्त भयंकर अँधियारा श्रुत दीप बूझा है करुनानिधिए बीती नही कष्टों की कारा अतएव प्रभो! यह ज्ञान प्रतीकए समर्पित करने आया हूँ तेरी अंतर लौ से निज अंतरए दीप जलाने आया हूँ। जड़ कर्म घुमाता है मुझकोए यह मिथ्या भ्रांति रही मेरी में रागी द्वेषी हो लेताए जब परिणति होती है जड़ की यों भाव करम या भाव मरणए सदिओं से करता आया हूँ निज अनुपम गंध अनल से प्रभुए पर गंध जलाने आया हूँ जग में जिसको निज कहता मेंए वह छोड मुझे चल देता है में आकुल व्याकुल हो लेताए व्याकुल का फल व्याकुलता है में शांत निराकुल चेतन हूँए है मुक्तिरमा सहचर मेरी यह मोह तड़क कर टूट पड़ेए प्रभु सार्थक फल पूजा तेरी क्षण भर निज रस को पी चेतनए मिथ्यमल को धो देता है कशायिक भाव विनष्ट कियेए निज आनन्द अमृत पीता है अनुपम सुख तब विलसित होताए केवल रवि जगमग करता है दर्शन बल पूर्ण प्रगट होताए यह है अर्हन्त अवस्था है यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभुए निज गुण का अर्घ्य बनाऊंगा और निश्चित तेरे सदृश प्रभुए अर्हन्त अवस्था पाउंगा जयमाला भव वन में जी भर घूम चुकाए कण कण को जी भर भर देखा। मृग सम मृग तृष्णा के पीछेए मुझको न मिली सच की रखा। झूठे जग के सपने सारेए झूठी मन की सब आशाएं । तन जीवन यौवन अस्थिर हैए क्षण भंगुर पल में मुरझाएं । सम्राट महाबल सेनानीए उस क्षण को टाल सकेगा क्या। अशरण मृत काया में हरषितए निज जीवन दल सकेगा क्या। संसार महा दुख सागर केए प्रभु दुखमय सच आभसोन में। मुझको न मिला सच क्षणभर भीए कंचन कामिनी प्रासदोन में। में एकाकी एकत्वा लियेए एकत्वा लिये सब है आते। तन धन को साथी समझा थाए पर ये भी छोड चले जाते। मेरे न हुए ये में इनसेए अति भिन्ना अखंड निराला हूँ। निज में पर से अन्यत्वा लियेए निज समरस पीने वाला हूँ। जिसके श्रिन्गारोन में मेराए यह महंगा जीवन घुल जाता। अत्यन्ता अशुचि जड़ काया सेए ईस चेतन का कैसा नाता। दिन रात शुभाशुभ भावों सेए मेरा व्यापार चला करता। मानस वाणी और काया सेए आस्रव का द्वार खुला रहता। शुभ और अशुभ की ज्वाला सेए झुलसा है मेरा अन्तस्तल। शीतल समकित किरण फूटेंए सँवर से जाग अन्तर्बल। फिर तप की शोधक वन्हि जगेए कर्मों की कड़ियाँ फूट पड़ें । सर्वांग निजात्म प्रदेशों सेए अमृत के निर्झर फूट पड़ें हम छोड चलें यह लोक तभीए लोकान्त विराजें क्षण में जा। निज लोक हमारा वासा होए शोकान्त बनें फिर हमको क्या। जागे मम दुर्लभ बोधी प्रभोए दुर्नैतम सत्वर तल जावे। बस ज्ञाता दृष्टा रह जाऊंए मद मत्सर मोह विनश जावे। चिर रक्षक धर्म हमारा होए हो धर्म हमारा चिर साथी। जग में न हमारा कोई थाए हम भी न रहें जग के साथी। चरणों में आया हूँ प्रभुवरए शीतलता मुझको मिल जावे। मुरझाई ज्ञानलता मेरीए निज अन्तर्बल से खिल जावे। सोचा करता हूँ भोगों सेए बूझ जावेगी इच्छा ज्वाला। परिणाम निकलता है लेकिनए मानो पावक में घी डाला। तेरे चरणों की पूजा सेए इन्द्रिय सुख को ही अभिलाषा। अब तक न समझ है पाया प्रभुए सच्चे सुख की भी परिभाषा। तुम तो अविकारी हो प्रभुवरए जग में रहते जग से न्यारे। अतएव झुक तव चरणों मेंए जग के माणिक मोती सारे। स्याद्वाद मयी तेरी वाणीए शुभ नय के झरने झरते हैं । और उस पावन नौका पर लाखोंए प्राणी भाव वारिधि तिरते हैं। हे गुरुवर शाश्वत सुख दर्शकए यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है। जग की नश्वरता का सच्चाए दिग्दर्शन करने वाला है। जब जग विषयों में रच पच करए गाफिल निद्रा में सोता हो। अथवा वह शिव के निष्कंटकए पथ में विष्कन्तक बोटा हो। हो अर्ध निशा का सन्नाटाए वन में वनचारी चरते हों। तब शांत निराकुल मानस तुमए तत्त्वों का चिन्तन करते हो। करते तप शैल नदी तट परए तरुतल वर्षा की झाड़ियों में। समता रस पान किया करतेए सुख दुख दोनों की घडियों में। अन्तर्ज्वाला हरती वाणीए मानों झरती हों फुल्झदियाँ । भाव बंधन तड तड टूट पड़ें ए खिल जावें अंतर की कलियां। तुम सा दानी क्या कोई होए जग को दे दी जग की निधियां। दिन रात लुटाया करते होए सम शम की अविनश्वर मणियाँ। हे निर्मल देव तुम्हें प्रणामए हे ज्ञानदीप आगम प्रणाम। हे शांति त्याग के मूर्तिमानए शिव पथ पंथी गुरुवर प्रणाम। |