वैराग्य भावना बीज राख फल भोगवै, ज्यों किसान जग माहिं | त्यों चक्री नृप सुख करैं, धर्म विसारै नाहिं ॥१ ॥ इह विधि राज करै नरनायक, भोगै पुण्य विशालो | सुख सागर में रमत निरंतर, जात न जान्यो कालो ॥ एक दिवस शुभ कर्म-संजोगे क्षेमंकर मुनि वंदे | देखि शिरीगुरु के पदपंकज, लोचन अलि आनन्दे ॥२ ॥ तीन प्रदक्षिण दे शिर नायो, कर पूजा थुति कीनी | साधु- समीप विनय कर बैठ्यो, चरनन में दिठि दीनी ॥ गुरु उपदेश्यो धर्म-शिरोमणि, सुन राजा वैरागे | राज रमा वनितादिक जे रस, ते रस बे रस लागे ॥ ३ ॥ मुनि-सूरज कथनी किरणावलि लगत भरम बुधि भागी | भव-तन भोगस्वरूप विचार्यो, परम धरम अनुरागी ॥ इह संसार महावन भीतर, भरमत ओर न आवै | जामन मरन जरा दव दाहै जीव महादुख पावै ॥४ ॥ कबहूँ जाय नरक थिति भुंजै, छेदन भेदन भारी | कबहूँ पशु परजाय धरै तहँ वध बंधन भयकारी ॥ सुरगति में परसंपति देखे, राग उदय दुख होई | मानुष योनि अनेक विपतिमय, सर्वसुखी नहिं कोई ॥५ ॥ कोई इष्ट वियोगी विलखै, कोई अनिष्ट संयोगी | कोई दीन - दरिद्री विगुचे, कोई तन के रोगी ॥ किसही घर कलिहारी नारी, कै बैरी सम भाई | किसही के दुख बाहिर दीखें, किसही उर दुचिताई ॥६ ॥ कोई पुत्र बिना नित झूरै, होय मरै तब रोवै | खोटी संतति सों दुख उपजै, क्यों प्राणी सुख सोवै ॥ पुण्य उदय जिनके तिनके भी, नाहिं सदा सुख साता | यह जगवास जथारथ देखे, सब दीखै दुखदाता ॥७ ॥ जो संसार विषैं सुख होता, तीर्थमर क्यों त्यागै | काहे को शिव साधन करते, संजमसो अनुरागै ॥ देह अपावन अथिर घिनावन, यामें सार न कोई | सागर के जलसौंशुचि कीजे, तो भी शुद्ध न होई ॥८ ॥ सात कुधातु भरी मल-मूरत, चर्म लपेटी सो है | अंतर देखत या सम जग में, अवर अपावन को है ॥ नव-मल-द्वार श्ववैं निशिवासर, नाम लिये घिन आवै | व्याधिउपाधि अनेक जहाँ तहँ, कौन सुधी सुख पावै ॥९ ॥ पोषत तो दुख दोष करै अति, सोषत सुख उपजावै | दुर्जन- देह- स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावै ॥ राचन- जोग स्वरूप न याको विरचन- जोग सही है | यह तन पाय महा तप कीजे यामें सार यही है ॥१० ॥ भोग बुरे भव रोग बढ़ावैं, बैरी हैं जग जीके | बेरस होंय विपाक समय अति, सेवत लागैं नीके ॥ वज्र अगिनि विष से विषधर से, ये अधिके दुखदाई | धर्म-रतन के चोर चपल अति, दुर्गति-पंथ सहाई ॥११ ॥ मोह-उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने | ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन माने ॥ ज्यों ज्यों भोग संजोग मनोहर, मन-वांछित जन पावे | तृष्णा नागिन त्यों-त्यों डंके, लहर जहर की आवे ॥१२ ॥ मैं चक्री पद पाय निरंतर, भोगे भोग घनेरे | तौ भी तनक भये नहिं पूरन, भोग मनोरथ मेरे ॥ राजसमाज महा अघ-कारण, बैर बढ़ावन-हारा | वेश्यासम लछमी अति चंचल, याका कौन पत्यारा ॥१३ ॥ मोह-महा-रिपु बैर विचार्यो, जग-जिय संकट डारे | घर-कारागृह वनिता बेड़ी, परिजन जन रखवारे ॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण तप, ये जियके हितकारी | ये ही सार असार और सब, यह चक्री चितधारी ॥१४ ॥ छोड़े चौदह रत्न नवों निधि, अरु छोड़े संग साथी | कोटि अठारह घोड़े छोड़े चौरासी लख हाथी ॥ इत्यादिक संपति बहुतेरी जीरण- तृण- सम त्यागी | नीति-विचार नियोगी सुत कों, राज दियो बड़भागी ॥१५ ॥ होय निशल्य अनेक नृपति संग, भूषण वसन उतारे | श्री गुरु चरण धरी जिनमुद्रा, पंच महाव्रत धारे ॥ धनि यह समझ सुबुद्घि जगोत्तम, धनि यह धीरजधारी | ऐसी संपत्ति छोड़ बसे वन, तिन पद धोक हमारी ॥१६ ॥ दोहा परिग्रह पोट उतार सब, लीनो चारित पंथ | निज स्वभाव में थिर भये,वज्रनाभि निरग्रंथ ॥ |