भक्तामर हिन्दी-7 काका देवों के मुकुटों की मणियाँ, जिन चरणों में जगमगा रहीं, जो पाप रूप अँधियारें को दिनकर बन कर के भगा रहीं, जो भव सागर में पड़े हुये जीवों के लिये सहारे हैं, मन-वच-तन से उन श्रई जिन के चरणों में नमन हमारे हैं।।1।। श्रुतज्ञानी सुरपति लोकपति जिनके गुण गाते हर प्रकार, स्तोत्र विनय पूजन द्वारा वन्दन करते हैं बार-बार, आश्चर्य आज मैं मन्द बुद्धि उन आदिनाथ के गुण गाता, उनकी भक्ति में भक्तामर भाषा में लिख कर हर्षाता।।2।। जो देवों द्वारा पूज्य प्रभु, मैं उनके गुण गाने आया, होकर अल्पज्ञ ढीठता ही, अपनी दिखलाने को लाया, मतिमंद हूँ उस बालक समान जिसके कुछ हाथ न आता है, प्रतिबिम्ब चन्द्र का जल में लख लेने को हाथ डुबाता है।।3।। जब प्रलयकाल की वायु से सागर लहराता जोरों से, तिस पर भी मगरमच्छ घूमें मुँह बाये चारों ओरों से, ऐसे सागर का पार भुजाओं से क्या कोई पा सकता, बस इसी तरह मैं मन्द बुद्धि प्रभु के गुण कैसे गा सकता।।4।। जिस तरह सिंह के पंजे में बच्चा लख हिरणी जाती है, ममता वश सिंह समान बली को अपना रोष जताती है, बस इसीतरह से शक्ति मेरी मुनिनाथ न स्तुति करने की, जो कहा भक्तिवश हीस्वामी है शक्ति न भक्ति करने की।।5।। ज्यों आम्र मंजरी को लख कर कोयल मधुराग सुनाती है, वैसे ही तेरी भक्ति प्रभु जबरन गुण गान कराती है, है अल्प ज्ञान विद्वानों के सन्मुख यह दास हँसी का है, तेरी भक्ति की शक्ति ने जो कहा ये काम उसी का है।।6।। जब जग के ऊपर छा जाता भँवरे-सा काला अन्धकार, सूरज की एक किरण उसको क्षण में कर देतीं छार-छार, वैसे ही भव-भव के पातक जो भी सञ्चय हो जाते हैं, तेरी स्तुति के द्वारा ही सब क्षण में क्षय हो जाते हैं।।7।। ज्यों कमल पत्र के ऊपर पड़ जल की बूंदें मन हरती हैं, मोती समान आभआ पाकर जो जगमग-जगमग करती हैं, बस उसी तरह यह स्तुति भी तेरे चरणों का बल पाकर, विद्वानों का मन हर लेगी मुझ अल्प बुद्धि द्वारा गाकर।।8।। है जिनवर तेरी कथा ही जब हर व्यथा दूर कर देती है, ङ्गिर स्तुति का कहना हीक्या जो कोटि पाप हर लेती है, जैसे सूरज की उजयाली जग का हर काम चलाती है, पर उससे पहिले की लाली कमलों के झुण्ड खिलाती है।।9।। हे भुवनरत्न ! हे त्रिभुवनपति जो तेरी स्तुति गाते हैं, आश्चर्य नहीं इसमें कुछ भी वो तुम जैसे बन जाते हैं, जैसे उदार स्वामी पाकर सेवक धनवाले बन जाते, है जन्म व्यर्थ जग में उनका जो पर के काम नहीं जाते।।10।। जो चन्द्र किरण सम उज्जवल जल मीठा क्षीरोदधि पान करे, वह लवणोदधि का खारा जल पीने का कभी न ध्यान करे, वैसे ही तेरी वीतराग मुद्रा जो नेत्र देख लेते, तो उन्हें सरागी देव कभी अन्तर में शान्ति नहीं देते।।11।। जितने परमाणु शुद्ध जग में उनसे निर्मित तेरी काया, इसलिये आप जैसा सुन्दर दूजा न कोई नजर आया, देवों की अति सुन्दर कान्ति जो नेत्रों में गड़ जाती है, पर वही कान्ति तेरे सन्मुख जाते ङ्गीकी पड़ जाती है।।12।। हे नाथ आप का मुख मण्डल सुर नर के नेत्र हरण करता, दुनिया की सुन्दर उपमायें कर सकें नहीं जिसकी समता, जो कान्तिहीन चन्दा दिन में बस ढाक पत्र-सा लगता है, वह भी जिन के सुन्दर मुख की उपमा कैसे पा सकता है।।13।। है त्रिभुवनपति तुम में सब ही उत्तम गुण दिये दिखाई हैं, हैं पूर्ण चन्द्र से कलावान जो त्रिभुवन को सुखदाई है, इसलिये उन्हें इच्छानुसार विचरण से कौन रोक सकता, जो त्रिभुवनपति के आश्रय हैं उनको ङ्गिर कौन टोक सकता।।14।। जो प्रलयकाल की तेज वायु पर्वत करती कम्पायमान, वह पर्वतपति सुमेर राज कर सकती नहीं चलायमान, बस उसी तरह से जो देवो देवों का मन हर सकती है, वह सभी देवियॉं मिल प्रभु को विचलित न जरा कर सकती हैं।।15।। है नाथ दीप जितने जग के जो नजर हमारी आते हैं, जलते जो तेल बाति द्वारा वायु लगते बुझ जाते हैं, पर नाथ आप वह दीपक हैं जो त्रिभुवन के प्रकाशक हो, निर्धूम जला करते निशदिन त्रिभुवन के तभी उपासक हो।।16।। हैं सतत् प्रकाशी सूर्य आप ग्रस सके न राहू पाप रूप, इक समय एक संग तीन लोक का प्रकाशित होता स्वरूप, यह सूर्य मेघ से आच्छादित होकर दिन में छिप जाता है, पर है मुनीन्द्र वह सूर्य आप जो सदा प्रकाश दिखाता है।।17।। मुखचन्द्र आप का है स्वामी मोहान्धकार का नाश करे, राहू मेघों से दूर सदा नित त्रिभुवन में प्रकाश करे, पर यह साधारण चन्द्र प्रभु राहू मेघों से घिर जाता, इतने पर भी यह सिर्फ रात में ही प्रकाश कुछ दे पाता।।18।। जब धान्य खेत में पक जाता जल की रहती परवाह नहीं, जल भरे बादलों को जग की रहती फिर किंचित चाह नहीं, बस उसी तरह मुखचन्द्र तेरा अज्ञान तिमिर जब हर लेता, तो सूर्य चन्द्रमा को पाने पर कोई ध्यान नहीं देता।।19।। मणियों पर पड़ने से प्रकाश की आभा जितनी बढ़ जाती, वह छटा काँच के टुकड़ों पर पड़ने से कभी न आ पाती, बस उसी तरह हे देव आपका स्वपर प्रकाशक तत्व ज्ञान, वह अन्य देवताओं से है कितना उज्ज्वल कितना महान।।20।। हरिहर देवों को लख कर ही जो शान्ति आप से पाई है, वह वीतरागता ही स्वामी हृदय में गई समाई है, इसलिये जन्म-जन्मान्तर में मन कोई देव न लुभा सका, जिसने भी एक बार तेरा प्रभु वीतराग मय रूप लखा।।21।। स्त्रियॉं सैंकड़ों जनती हैं प्रतिदिन सुन्दर-सुन्दर बालक, पर तुम जैसाकोई माता जन सकी नहीं सुत प्रतिपालक, जैसे नक्षत्र उगा करते नित लाखों अन्य दिशाओं में, पर चमकदार सूरज उगता केवल पूरब की बाँहों में।।22।। है प्रभु आपको परम पुरुष कह मुनिजन पूजा करते हैं, हो राग-द्वेष से निर्मल मोहान्धकार को हरते हैं, मन-वचन-काय से भक्ति कर मृत्यु पर विजय प्राप्त करते, मुक्ति का मार्ग मान तुमको यम से भी कभी नहीं डरते।।23।। अव्यय अचिंत विभु आद्य ब्रह्म ईश्वर अनन्त सुख रासी हो, योगीश्वर विदित योग तुम ही शिवपुर असंख्य के वासी हो, हो एक अनेक अनङ्ग केतु ज्ञान स्वरूप निराभिमानी, प्रभु अमल विमल कृतकृत्य तुम्हें करते हैं सभी मुनिज्ञानी।।24।। है ज्ञान मूर्ति हे बुद्ध आपकी पूजा गणधर देव करें, ब्रह्मा शमर भी आप विबुध जन सभी आप की सेव करें, बतलाया मोक्षमार्ग जग को इसलिये विधाता हो स्वामी, हो सभी गुणों की खान आप पुरुषोत्तम हैं जग में नामी।।25।। तुम तिहुँ जग के दुःख हरणहार हे नाथ आप को नमस्कार, तुम भू-मण्डल के अलमार हे नाथ आप को नमस्कार, तुम अजर अमर पद देनहार हे नाथ आपको नमस्कार, हो जाता पूजक पूज्य प्रभु हे नाथ आप को नमस्कार।।26।। आश्चर्य है इसमें क्या मुनीश हैं आप सभी गुण के धारी, अवकाश नहीं है किंचित भी गुण बसे सघन आकर भारी, गर्वित अभिमानी दोषओं ने मुख चन्द्र आप का लखा नहीं, इसलिये दोष कोई तुम में हे त्रिभुवन पति आ सका नहीं।।27।। उन्नत अशोक तरु के नीचे निर्मल शरीर अतिशय कारी, अति कान्तिवान जगमगा रहा झाँकी लगती है अति प्यारी, वह हृदय देख लगता मानो तम ने उजियाला पाया हो, या फिर मेघों को चीर सूर्य का बिम्ब निकल आया हो।।28।। हे प्रभु ये मणिमय सिंहासन जिसकी किरणें जगमगा रहीं, सुवरण से ज्यादा कान्तिवान तन की शोभा अति बढ़ा रहीं, ऐसा लगता उदयाचल पर सोने का सूरज बना हुआ, जिस पर किरणों का कांतिवान सुन्दर चन्दोवा तना हुआ।।29।। जब समोशरण में भगवन के सोने समान सुन्दर तन पर, ढुरते हैं अति रमणीक चँवर जो कुन्द पुष्प जैसे मनहर, तब ऐसा लगता है सुमेर पर जल की धारा बहती हो, चन्द्रमासमान उज्ज्वल राशि झरझर झरनों से झरती हो।।30।। शशि के समान सुन्दर मन हर रवि ताप नाश करने वाले, मोती मणियों से जड़े हुये शोभा महान देने वाले, प्रभु के सर पर शोभायमान त्रय छत्र सभी को बता रहे, येतीन लोक के स्वामी हैं जगमग कर जग को बता रहे।।31।। गम्भीर उच्च रुचिकर ध्वनि से जो चारों दिशा गुञ्जाते हैं, सत्सगं की महिमा तीन लोक के जीवों को बतलाते हैं, जो तीर्थमर की विजय घोषणा का यश गान सुनाते हैं, गुञ्जायमान जो नभ करते वह दुन्दुभि देव बजाते हैं।।32।। जो पारिजात के दिव्य पुष्प मन्दार आदि से लेकर के, करते हैं सुरगण पुष्पवृष्टि गन्दोदविन्दु को दे कर के, ठण्डी बयार में कुसमावलि जब कल्प वृक्ष से गिरती है, तब लगता प्रभु की दिव्यध्वनि ही पुष्प रूप में खिरती है।।33।। जो त्रिभुवन में दैदीप्यमान की दीप्ति जीतने वाली है, जो कोटि सूर्य की आभा को भी लज्जित करने वालीहै, जो शशि समान ही शान्ति सुधा जग को वर्षाने वाली है, उस भामण्डल की दिव्य चाँदनी से भी छटा निराली है।।34।। है प्रभु आप की दिव्य-ध्वनि जब समवशरण में खिरती है, तब सभी मोक्ष प्रेमी जीवों का अनायास मन हरती है, परिणमन आप की वाणी का शुद हो जाता हर बोली में, जो भी प्राणी आकर सुनता है समवशरण की टोली में।।35।। नूतन कमलों-सी कान्तिवान चरणों की शोभा प्यारी है, नख की किरणों का तेज स्वर्ण जैसा लगता मनहारी है, ऐसे मनहारी चरणों को जिस तरह प्रभुजी धरते हैं, उस जगह देव उनके नीचे कमलों की रचना करते हैं।।36।। हे श्री जिनेन्द्र तेरी विभूति सचमुच ही अतिशयकारी है, धर्मोपदेश की सभा आप जैसी न और ने धारी है, जैसे सूरज का उजियाला सारा अम्बर चमकाता है, वैसे नक्षत्र अनेकों पर सूरज को एक न पाता है।।37।। मदमस्त कली के गण्डस्थल पर जब भौंरे मँडराते हैं, उस समय क्रोध से हाथी के दोउ नयम लाल हो जाते हैं, इतने विकराल रूप वाला हाथी जब सन्मुख जाता है, ऐसे समट के समय आप का भक्त नहीं घबराता है।।38।। जो सिंह मदान्ध हाथियों के सिर को विदीर्ण कर देता है, शोणित से लथपथ गज मुक्ता पृथ्वी को पहिना देता है, ऐसा क्रूर वनराज शत्रुता छोड़ मित्रता धरता है, जब उसके पंजे में भगवन कोई भक्त आप का पड़ता है।।39।। हे प्रभो प्रलयका पवन जिसे धू-धू कर के धधकाता हो, ऐसी विकराल अग्नि ज्वाला जोक्षण में नाश कराती हो, उसको तेरे वचनामृत जल पल भर में शान्ति प्रदान करे, जो भक्तिभाव कीर्त्तन रूपी तेरा पवित्र जल पान करे।।40।। हे प्रभु नागदमनी से ज्यों सर्पों की एक न चल पाती, विषधर की डँसने की सारी शक्ति क्षण में क्षय हो जाती, बस उसी तरह श्रद्धा से जो तेरा गुण गान किया करते, वह डरते नहीं क्रुद्ध काले नागों पर कभी पैर धरते।।41।। जैसे सूरज की किरणों से अँधियारा नजर नहीं आता, भीषण से भीषण अनअधकार का कोई पता नहीं पाता, बस उसी तरह से है जिनवर जो गाता तेरी गुण गाथा, उसको सशक्त हय गज वाले राजा टेका करते माथा।।42।। रण में भाले से अरियों का जब रुधिर वेग से बहता है, वह रुधिर धार कर पार वेग से हर योद्धा तत्पर रहता है, ऐेसे दुर्जय शत्रु पर भी वह विजय पताका फहराते, हे प्रभु आप के चरण कमल जिनके द्वारा पूजे जाते।।43।। सागर की भीषण लहरों से जब नैया डगमग करती है, या ङ्गिर प्रलयंकारी स्वरूप अग्नि जब अपना धरती है, उस वक्त आपका ध्यान मात्र जो भक्त हृदय से करते हैं, इन आकस्मिक विपदाओं में हर समय देव गण रहते हैं।।44।। हे प्रभो जलोदर से जिनकी काया निर्बल हो जाती है, जीने की आशा छोड़ दशा जब शोचनीय हो जाती है, उस समय आपको चरणों की रज जो बीमार लगाते हैं, वह ङ्गिरसे कामदेव जैसा सुन्दर स्वरूप पा जाते हैं।।45।। जो लौह श्रृंखलाओं द्वारा पग से गर्दन तक जकड़ा हो, जकड़न से जङ्घाओं पर का जमड़ा भी कुछ-कुछ उखड़ा हो, ऐसा मानव भी बन्धनसे पल में मुक्ति पा जाता है, जो तेरे नाम मन्त्र को प्रभु अपने अन्तर में ध्याता है ।।46।। हे प्रभु आप की यह विनती जो भक्ति भाव से गाते हैं, दावानल सिंह सर्प हाथी हर विघ्न दूर हो जाते हैं, तिर जाते गहरे सागर से तन के बन्धन कट जाते हैं, हर रोग दूर हो जाते जो भक्तामर पाठ रचाते हैं।।47।। यह शब्द सुमन से गूंथी है श्री जिनवर के गुण की माला, वह मोक्ष लक्ष्मी पाता है जिसने भी इसे गले में डाला, श्रीमानतुङ्ग मुनिवर ने ये स्तोत्र रचा सुखदाई है, कवि काका ने भाषा द्वारा हर कण्ठों तक पहुँचाई है।।48।। दोहा भक्तामर स्तोत्र का करे भव्य जो जाप, मनोकामना पूर्ण हों मिटें सभी संताप। विघ्न हरन मंगल करन सभी सिद्धि दातार, काका भक्तामर नमों भव दधि तारनहार।। |