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भक्तामर हिन्दी-6

भक्तामर हिन्दी-6

हैं भक्त-देव-नत मौलि मणि-प्रभा के उद्योतकारण, विनाशक पाप के हैं।

आधार जो भवपयोधि पड़े जनों के, अच्छी तरह नमः उन्हीं प्रभु के पदों को।।1।।

श्री आदिनाथविभु की स्तुति मैं करूँगा, की देवलोकपति ने स्तुति है जिन्हों की।

अत्यन्त सुन्दर जगत्त्रय चित्तहारी सुस्तोत्र से, सकल शास्त्र-रहस्य पाके।।2।।

हूँ बुद्धिहीन ङ्गिर भी बुधपूज्यपाद, तैयार हूँ स्तवन को निर्लज्ज हो के।

है और कौन जग में तज बालकों को, जो लेना चाहे सलिल-संस्थित चन्द्र-बिम्ब।।3।।

होवे बृहस्पति समान सुबुद्धि तो भी, है कौन जो गिन सके तव सद्गुणों को।

कल्पान्तवायु-वशसिन्धु, अलंघ्य जो है, है कौन जो तिर सके उसको भुजा से।।4।।

मैं हूँ शक्तिहीन ङ्गिर भी करने लगा हूँ, तेरी प्रभो ! स्तुति हुआ वश भक्ति के।

क्या मोह के वश हुआ शिशु को बचाने, है सामना न करता मृग सिंह का भी।।5।।

हूँ अल्पबुद्धि, विज्ञमानव की हँसी का हूँ पात्र, भक्ति तव है मुझ को बुलाती।

जो बोलता मधुर कोकिल है मधु में, है हेतु आम्रकलिका बस एक उसका।।6।।

तेरी किये स्तुति विभो ! बहु जन्म के भी, होते विनाश सब पाप मनुष्य के हैं।

भौरें समान अति श्यामल ज्यों अन्धेरा, होता विनाश रवि के कर से निशा का।।7।।

यों मान कर स्तुति शुरू की मुझ अल्पज्ञी ने, तेरे प्रभाववश नाथ ! वही हरेगी।

सल्लोक के हृदय को, जल-बिन्दु भी तो मोती समान नलिनी दल पै सुहाते।।8।।

निर्दोष दूर हो तव स्तुति का बनाना, तेरी कथा तक हरे जग के अघों को।

हो दूर सूर्य, करती उसकी प्रभा ही अच्छे प्रङ्गुल्लित सरोजन को सरों में।।9।।

आश्‍चर्य क्या भुवनरत्न, भले गुणों से, तेरी किये स्तुति बने तुझ से मनुष्य।

क्या काम है जगत में उन मालिकों का, जो आत्म तुल्य न करें निज आश्रितों को।।10।।

अत्यन्त सुन्दर विभो तुझको विलोक, अन्यत्र आँख लगती नहिं मानवों की।

क्षीराब्धिका मधुर सुन्दर वारि पी के, पीना चाहे जलधि का जल कौन खारा।।11।।

जो शान्ति के सुपरमाणु प्रभो ! तनु में तेरे लगे, जगत् में उतने वही थे।

सौन्दर्यसार, जगदीश्‍वर, चित्तहर्त्ता, तेरे समान दूसरा नहिं रूप कोई।।12।।

तेरा कहाँ मुख सुरादिक नैत्ररम्य, सर्वोपमान-विजयी जगदीश नाथ !

त्यों ही कलमित कहाण वह चन्द्र-बिम्ब, जो हो पड़े दिवस में द्युतिहीन फीका।।13।।

अत्यन्त सुन्दर कलानिधि की कला से, तेरे मनोज्ञ गुण नाथ फिरें जगों में।

है आसरा त्रिजगदीश्‍वर का जिन्होंको, रोके उन्हें त्रिजग में ङ्गिरते न कोई।।14।।

देवांगना हर सकी मन को न तेरे, आश्‍चर्य नाथ ! इसमें कुछ भी नहीं है।

कल्पान्त के पवन से उड़ते पहाड़, पै मन्दराद्रि हिलता तक है कभी क्या।।15।।

बत्ती नहीं, नहिं धुआँ, नहिं तैलपूर, भारी हवा तक नहीं सकती बुझा है।

सारे त्रिलोक बीच है करता उजेला, उत्कृष्ट दीपक विभो ! द्युतिकारी तू है।।16।।

तू हो न अस्त, तुमको गहता न राहु, पाते प्रकाश तुझ से जग एक साथ।

तेरा प्रभाव रुकता नहीं बादलों से, तू सूर्य से अधिक है महिमानिधान।।17।।

मोहान्धकार हरता रहता उगा ही, जाता न राहु-मुख में, न छुपे घनों से।

अच्छे प्रकाशित करे जग को सुहावे, अत्यन्त कान्तिधर नाथ, मुखेन्दु तेरा।।18।।

क्या भानु से दिवस में, निशि में शशि से, तेरे प्रभो, सुमुख से तम नाश होते।

अच्छी तरह पक गया जग बीच धान, है काम क्या जल भरे इन बादलों से।।19।।

जो ज्ञान निर्मल विभो ! तुझ में सुहाता, भाता नहीं वह कभी पर-देवता में।

होती मनोहर छटा मणि-मध्य जो है, सो काँच में नहिं पड़े रवि-बिम्ब के भी।।20।।

देखे भले, अयि विभो ! पर देवता ही, देखे जिन्हें हृदय आ तुझ में रमे थे।

तेरे विलोकन किये ङ्गल क्या प्रभो, जो कोई रमे न मन में पर-जन्म में भी।।21।।

माएँ अनेक जनती जग में सुतों को, हैं किन्तु वे न तुझ से सुत की प्रसूता।

सारी दिशा धर रही रवि का उजेला, पै एक पूरब दिशा ही रवि को उगाती।।22।।

योगी तुझे परम पुरुष हैं बताते, आदित्यवर्ण मलहीन तमिस्रहारी।

पाके तुझे, जय करें सब मौत को भी, है और ईश्‍वर नहीं वर मोक्ष-मार्ग।।23।।

योगेश, अव्यय, अचिन्त्य, अनङ्गकेतु, ब्रह्म, असंख्य, परमेश्‍वर, एक नाना।

ज्ञानस्वरूप, विभु, निर्मल, योगवेत्ता, त्यों आद्य, सन्त तुझको कहते अनन्ता।।24।।

तू बुद्ध है विबुध-पूजित-बुद्धिवाला, कल्याण कर्तृवर शमर भी तुही है।

तू मोक्ष-मार्ग-विधि-कारक है विधाता, है व्यक्त नाथ ! पुरुषोत्तम भी तुही है।।25।।

त्रैलोक्य आर्ति हर नाथ! तुझे नमूं मैं, हे भूमि के विमलरत्न ! तुझे नमूं मैं।

हे ईश ! सर्व जग के, तुझको नमूं मैं, मेरे भवोदधि विनाशी, तुझे नमूं मैं।।26।।

आश्चर्य क्या गुण सभी तुझ में समाए, अन्यत्र क्योंकि न मिली उनको जगह ही।

देखा न नाथ ! मुख भी तव स्वप्न में भी, पा आसरा जगत् का सब दोष ने तो।।27।।

नीचे अशोक तरु के तन है सुहाता, तेरा विभो ! विमल रूप प्रकाशकर्त्ता।

फैली हुई किरण का, तम का विनाशी, मानो समीप घन के रवि-बिम्ब ही हो।।28।।

सिंहासन स्ङ्गटिक-रत्न जड़ा, उसी में भाता विभो ! कनककान्त शरीर तेरा।

ज्यों रत्न-पूर्ण-उदयाचल शीश पै जा ङ्गैला, स्वकीय किरणें रवि-बिम्ब सोहे।।29।।

तेरा सुवर्णसम देह विभो ! सुहाता, है श्‍वेत कुन्दसम चामर के उड़े से।

सोहे सुमेरुगिरि, काँचन कान्तिधारी, ज्यों चन्द्रकान्तिधर निर्झर के बहे से।।30।।

मोती मनोहर लगे जिनमें, सुहाते नीके हिमांशुसम, सूरजतापहारी।

हैं तीन छत्र शिरपै अतिरम्य तेरे, जो तीन-लोक-परमेश्‍वरता बताते।।31।।

गम्भीर नाद भरता दश ही दिशा मैं, सत्संग की त्रिजग को महिमा बताता।

धर्मेश की कर रहा जयघोषणा है, आकाश बीच बजता यश का नगाड़ा।।32।।

गन्धोद-बिन्दुयुत मारुत की गिराई, मन्दारकादि तरु की कुसुमावली की।

होती मनोरम सहा सुरलोक से है वर्षा, मनो तव उसे वचनावली है।।33।।

त्रैलोक्य की सब प्रभामय वस्तु जीती, भामण्डल प्रबल है तव नाथ ऐसा।

नाना प्रचण्ड रवि-तुल्य सुदीप्तिधारी, है जीतता शशि सुशोभित रात को भी।।34।।

है स्वर्ग-मोक्ष-पथ दर्शन की सुनेता, सद्धर्म के कथन में पटु है जगों के।

दिव्य-ध्वनि प्रकट अर्थमयी प्रभो ! है तेरी, लहे सकल मानव बोध जिससे।।35।।

ङ्गूले हुए कनक के नव पद्म के से, शोभायमान नख की किरण प्रभा से।

तू ने जहॉं पग धरे अपने विभो ! हैं नीके वहॉं विबुध पमज कल्पते हैं।।36।।

तेरी विभूति इस भॉंति विभो ! हुई जो, सो धर्म के कथन में हुई किसी की।

होते प्रकाशित, परन्तु तमिस्रहर्ता होता न तेज, रवि तुल्य कहीं ग्रहों का।।37।।

दोनों कपोल झरते मद से सने हैं, गुञ्जार खूब करती मधुपावली है।

ऐसे प्रमत्त गज होकर क्रुद्ध आवे, पावें न किन्तु भय आश्रित लोक तेरे।।38।।

नाना करीन्द्रदल-कुम्भ विदार के, का पृथ्वी सुरम्य जिसने गजमोतियों से।

ऐसा मृगेन्द्र तक चोट करे न उस पै, तेरे पदादि का जिसको शुभ आसरा है।।39।।

झालें उठे, चहुँ उड़ें जलते अङ्गारे, दावाग्नि जो प्रलय वह्नि समान भासे।

संसार भस्म करने हित पास आवे, त्वत्कीर्तिगान शुभ वारि उसे शमावे।।40।।

रक्ताक्ष क्रुद्ध पिककण्ठ-समान काला, ङ्गुँकार सर्प ङ्गण को कर उच्च धावे।

निःशंक हो जन उसे पग से उलांघे, त्वन्नाम-नागदमनी जिसके हिये हो।।41।।

घोड़े जहाँ हिनहिनाते, गरजे गलाली, ऐसे महा प्रबल सैन्य धराधिपों के।

जाते सभी बिखर हैं तव नाम गाए, ज्यों अन्धकार, उगते रवि के करों से।।42।।

बर्छे लगे, बह रहे गज रक्त के हैं तालाब से, विकल हैं तरणार्थ योद्धा।

जीते न जायें रिपु से, समर बीच ऐसे तेरे प्रभो ! चरण-सेवक जीतते हैं।।43।।

हैं कालनृत्य करते मकरादि जन्तु, त्यों बाड़वाग्नि अति भीषण सिन्धु में है।

तूङ्गान में पड़ गये जिनके जहाज, वे भी प्रभो ! स्मरण से तव पार होते।।44।।

अत्यन्त पीड़ित जलोदर-भार से हैं, है दुर्दशा तज चुके निज जीविताशा।

वे भी लगा तव पदाब्ज-रज सुधा को, होते प्रभो ! मदन-तुल्य सुरूप देही।।45।।

सारा शरीर जकड़ा दृढ़ सॉंकलों से, बेड़ी पड़ छिल गई जिनकी सुजाघें।

त्वन्नाम-मन्त्र जपते-जपते उन्हीं के, जल्दी स्वयं झड़ पड़े सब बन्ध बेड़ी।।46।।

जो बुद्धिमान इस सुस्तव को पढ़े हैं, होके विभीत उनसे भय भाग जाता।

दावाग्नि-सिन्धु अहिका, रण-रोग का, त्यों पञ्चास्यमत्तगजका, सब बन्धनों का।।47।।

तेरे मनोज्ञ गुण से स्तवमालिका ये गूंथी प्रभो ! विविधवर्ण-सुपुष्पवाली।

मैंने; सभक्ति जन कण्ठ धरे इसे जो, सो मानतुङ्ग सम प्राप्त करे सुलक्ष्मी।।48।।

 

 

 

 

 

 

 

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