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भक्तामर हिन्दी

भक्तामर हिन्दी

नितप्रति बन्दत जासुपद, सुरनर खग हरिब्याल।

ऐसे आदि जिनंद की, बरणू गुण मणिमाल।।

भक्ती-सुरा नमि किरीट मणी प्रमाना।

उद्योतकार हर पाप तमो बिताना।।

आलम्बने भव जले परते जनाना।

ऐसे युगादि प्रभु के नमि के पदाना।।1।।

मैं हूं करूं थुतिव शक्ति निजी नुसारा।

आदीश की, अतिव सुन्दर औ उदारा।।

जाकी जु इन्द्र पढ़ि आगम तत्व सारा।

कीन्ही त्रिलोक मन हारण स्तोत्र द्वारा।।2।।

बुद्धि बिना अमर पूजित पाद पीठा।

हैं हूं जू उद्यत करूं थुति हाय ढीठा।।

है अन्य को जग असा ? तजि वाल्यकाया।

ईच्छा करै सलिल संस्थित चंद छाया।।3।।

बुद्धी भई सुर गुरू सम ताहु नाहीं।

कोऊ गुनी, गिन सके गुन तो अथाही।।

कल्पाँत-वायुवश उद्धत नक्र जामें।

सिंधु तिरै निज भुजा, नर कौन तामें।।4।।

ऐहो मुनीश ! निज ज्ञान नशाय शक्ती।

सन्नद्ध हूं थुति करूं यह तोर भक्ती।।

ज्यों प्रीति के वश भई हरि के अगारी।

जावे शिशु मृगी तई, सब मैं बिसारी।।5।।

शात्रस्ज्ञ अज्ञ-सब ही मुझ पै हँसे हैं।

भक्ती तुम्हारी इक चंचल मौ करे हैं।।

जो कोकिला मधु ऋतु मधु गीत गावे।

सौहै रसाल कलिका इकली प्रभावै।।6।।

जन्मांत जन्म जग-जीवन के अघों को।

तेरी थुति छिनक में नसि है सबों को।।

भोंरे समान जग व्यापक जो अँधेरो।

रात्री समै, रवि हरे सबही सवेरो।।7।।

आरम्भ नाथ ! यह जान करी थुती में।

है अल्प धी मम, तऊ मनकुं सुधी के।।

तेरे प्रसाद हरि हैं, जल बिन्दू जैसे।

मोती लसें कमल पत्र प्रभाव तैसे।।8।।

दूरी रहै थुति विभो ! निरदोष तेरी।

एकै कथा जग हरै सब पाप ढेरी।।

है सूर दूर करतीं किरने तथापि।

सारे सरोवरनुमें कमला विकाशी।।9।।

क्या है अचम्भ जगभूषण ! भूतनाथे।

हो हैं मनुष्य तुझ से, थुति तोर गाते।।

काहै भला उन धनी दग स्वामियों कों।

आपे समान करते नहीं आश्रितों को।।10।।

ऐ हो जिनेश ! अनिमेष विलोकनीये।

देखें तुझे भव जने कहूं और ढीये।।

पावें न तोष, तजि और समुद्रबारी।

पीवौ चहै जल-निधि-जल कौन खारी।।11।।

तेरे शरीर लगि हैं, जगमाहिं जेते।

शाँति सुभाव परिमानु रुचीर तेते।।

याते अहो त्रिभुवने चित चोर रूपा।

कोई नहीं तुम समान दिपै सरूपा।।12।।

त्रैलोक नाहिं उपमा, मुख तोर भारी।

देवा मनुष्य अहि आदिक नेत्र हारी।।

ऐसी कहां, वह कलंकित चन्द्र जो है।

टेसु समान दिन में नित पाँडु हो है।।13।।

सम्पूर्ण चन्द्र-दुति की जु समान तेरे।

तीनों जगत गुन पूरि रहे घनेरे।।

ऐ हो त्रिलोकपति | आश्रित तोर जोई।

इच्छानुसार बिचरें नहिं रोक कोई।।14।।

बिस्मै कहा ? अचलचित्त विकार माहीं।

देवाँगना कदापि नाहिं चला सकाहीं।।

कल्पान्त वायु-वश शैली सभी हलैं हैं।

पै एक मेरु-गिरि ही कभु न चले हैं।।15।।

जामें न घूम, नहिं वर्ति न तैल भारो।

तापै निरन्तर करै जग त्रै उजारौ।।

जाते चले अचल, वायु न जाय पासे।

तू नाथ ! अद्भुत सुदीप जगत प्रकासे।।16।।

हो है न अस्त, परती नहिं राहु-छाँहीं।

तोहूं प्रकाश तिहूं लोक छिनेक माँहीं।।

रोकें प्रभाव नहिं मेघ, मुनि शराया।

तेरी अपार महिमा, रवितें बढ़ाया।।17।।

उगा रहै नित दलै तम मोह फाँसी।

राहु ग्रसै न मुख में नहिं मेघरासी।।

तेरो प्रकाश ख-पद्म धरै अमन्दा।

उद्योताक मुजगमॉंहि अपूर्व चन्दा।।18।।

तेरो प्रभु मुख मयंक हरै सभी जो।

अन्धारू व्यर्थ निशि इन्दु दिनेर वीतौ।।

रचों जु ओर बहु शालिन पक्क सो है।

तादेश वारिद भरे जलकाह हो है।।19।।

जैसो प्रकाश कर-ज्ञान तुम्हार मांहि।

तैसी कभी हरि हरादिक मॉंहि नाहिं।।

जो तेज स्ङ्गुरित महान महामनी में।

सो है कहॉं चमक कांचनु की कनी में।।20।।

देखें भले हरि हरादिक एक बेरी।

होबै सन्तोष हिय तोहिं विलोक फेरी।।

काहै भला ! तुमहिं देखि जगत माहीं।

जन्मान्तरे न प्रभु मो मनको हराही।।21।।

नारि अनेक शत पुत्र प्रसूत दाता।

पै तो समान नहिं दीखत और माता।।

तारे दशों दिशनु में उगि हैं अनेका।

पै तेज सूरज जनै दिग पूर्व एका।।22।।

सारे मुनी, परम पौरष तो बखाने।

नासे अंधेर सबही जग सूर मानैं।।

जीतें जु मृत्यु तम पाय भली प्रकारे।

कोई न मार्ग शिव नाथ तुम्हें विसारे।।23।।

तू काम के तुरू असंख्य बिभू अदीशा।

ब्रह्मा, अचिंत्य, परमेश्‍वर, एक ईशा।।

योगीशरो, विदितयोग, अखै अन्नता।

ज्ञानं स्वरूप, विमला प्रवदन्त सन्ता।।24।।

है बुद्धि ! बोध सुर पुर्जि बुधे तुम्ही हो।

त्रैलोक, शंकर सुशंकरहू तुम्ही हो।।

धाता तुम्ही शिवमगा विधि के विधाना।

त्योहि तुम्हीं प्रकट हो जग में नराना।।25।।

त्रैलोक दुःख हरनाथ ! तुम्हें नमस्ते।

हे भूतले विमल रत्न ! तुम्हें नमस्ते।।

त्रैलोक ईश्‍वर जिनेश ! तुम्हें नमस्ते।

संसार सिंधु जिन शोषि ! तुम्हें नमस्ते।।26।।

विस्मे कहा ! गुत गुने सब तोर माहीं।

ऐहो मुनीश ! बसते कहुं और नाहीं।।

जो पै सहाय बहु पाय करें गुमाना।

देखे न दोष तुम कूं सपने निदाना।।27।।

ऊँचे अशोक तल दीर्घित आश्रिताया।

सो हैं तुम्हार अति निर्मल रूप काया।।

यों, जो समीप घन बिम्ब-रवि लसै हैं।

ङ्गैली मयूख, चहुघा तमकूँ नसै हैं।।28।।

सिंहासन जडित रत्ननु चित्रकारी।

सोहैं सुवर्ण तसु पै तन तोर भारी।।

आकाश में प्रसर अंशु सभी रवें जो।

विम्बा दिखात उदिताचल ऊपरे त्यों।।29।।

जापै ढुरें चमर सदृश-कन्द प्यारे।।

सौने-समान शशि-तुले जल झर्न घेरे।

ऊँचे सुमेरू तट कंचना, सोह तेरे।।30।।

रोके प्रताप रवि, रम्य शशी समाना।

मोतीनु की रचन सों अति शोभ माना।।

जे तीन छत्र सिर तोरु असेसुहावें।

मानो त्रिलोक परमेसुरता जतावें।।31।।

आशा दिशों सुरन उच्च करें फिराता।

त्रैलोक संगम-शुभे महिमा बताता।।

सद्धर्म राज जय घोषण को नगारा।

मानों नभै, तुम यशैं करता प्रचारा।।32।।

गंधोद बिन्दु शउभ मन्द बयार प्रेरी।

सन्तानकादि सुर बृक्षनु पुष्प ढेरी।।

उर्द्धा मुखी जु नभतें बरसें सुहानी।

मानों सरुप धरि आवत दिव्य बानी।।33।।

जाके अगार दुतिवन्त सभी लजावें।

सूरे असंख्य कबहू, समता न पावें।।

भामन्डले विभु ! तुम्हार अति उदीता।

जीते निशा, शशि समान ददापि सीता।।34।।

स्वर्गेरु मोक्ष पथ शुद्ध मुनिनु शोधी।

सद्धर्म तत्व कथिवे तिहूं लोक बोधी।।

तेरी जु दिव्य धुनि है सब अर्थ खाना।

जाते लहे सकल ज्ञान, मनुष्य नाना।।35।।

ङ्गूलै-सुवर्न-नव-पंकज के समाना।

कांतीयुते, नख मयुख शिखा प्रमाना।।

ऐसी जिनंद ! जहँ तोर डगें परें हैं।

पद्यानु-पुंज सुर आय तहा धरें हैं।।36।।

तेरी भई जु जिन इन्दु विभूति जौसी।

धर्मोपदेश समये, नहि और तैसी।।

जेती प्रभा तम हरें रवि मैं फुरै हैं।

ते तीन अन्य ग्रह आदिक में झरैं हैं।।37।।

जाकें बहै मद कपोल विलोल तापै।

गुंजार भौंर करि कोप अति वढ़ावै।।

ऐसो प्रमत्त गज सम्मुख होय आवै।

देखें न ताहि भय, आश्रित तोर लावै।।38।।

जानें गजेन्द्र-दत्त-कुंभ बिदरी भारी।

लोहू सुपेद मिलि मोतिन भू सिगारी।।

ऐसे मृगेन्द्र पग तरे नर जे परै हैं।

पाकें सहाय तुम पॉंय नहीं मरे हैं।।39।।

कल्पांत वायु वश अग्नि भई उतंगा।

जाते असंख्य उड़ि के नभ में ङ्गुलिंगा।।

संसार नाश-कर सन्मुख वेगि आवै।

सोहू तुम्हार जल कीर्तन शांति पावै।।40।।

कोइल कंठ सम-श्याम अरुण नैना।

ऊँचौ करै ङ्गन चलै अति क्रुद्ध भयना।।

ऐसे भुजंग झटि लांघि चलै अगारी।

त्वं नाम-नागदमनी नर हीय धारी।।41।।

हाथी तुरंग लड़ि शब्द करे भयाना।

संग्राम में नृपनु सैन्य जहां बलाना।।

नासै छिनेक सबही तुम नाम गाना।

जैसे नसैं रवि उगें तमके बिताना।।42।।

भाले लगें जहँ, बहे गज रक्त धारें।

योधा परे विहल हैं नहिं होत पारे।।

ऐसे कराल रन-खेतनुं में लहें हैं।

वेही विजै तुम पदांबुज जे गहैं हैं।।43।।

जामें कराल बड़वाग्नि स्वयं जरे हैं।

जंतू अनेक मकरादिक से भरे हैं।।

ऐसे समुद्र मघिंयान तु आपरै हैं।

सोहु तुम्हार सुमिरे तुरते तरै हैं।।44।।

टेढे भए सब जलोदर भारते-जो।

आशा तजी नहि बचे दुखिया भए-जो।।

ऐसे मनुष्य पद-कंज-सुधा तुम्हारी।

लेकें मलें रज दिये मदनावतारी।।45।।

बेड़ी बड़ीनु प्रसिता सबही छिली है।

पादा लगाय सिर सॉंकर हु परी हैं।।

त्वं नाम मंत्र जपते प्रभु ! ते जनाना।

छूटें स्वमेव दुःख बंधन आदि नाना।।46।।

मांतंग, सर्प मृगराज, समुद्र काठौ।

दावानले रन जलोदर कष्ठ आठौ।।

होके विभीत भय भागि सभी जुजावें।

तेरी थुति ! नित सुधि पढिओ पढ़ावे।।47।।

गूंथी विभो ! विरदमाल तुम्हार प्यारी।

भक्ति सहित रुचि बर्न सुपुष्प बारी।।

सेवक धरे जुनर कण्ठ बनाय हारी।

ते मानतुंग शिषलच्छि लहैं अपारी।।48।।

इति शुभम्

 

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