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भक्तामर हिन्दी ॥ज्ञानेश॥

भक्तामर हिन्दी

॥ज्ञानेश॥

भक्ति मान देव नत मस्तक, मुकुट मणी शोभा अनुपम।

उद्योत करण हैं पाप विनाशक, ज्ञान सूर्य प्रकाश किरण।।

मन वच काय विनय वन्दना, युगादि देव के युगल चरण।

जन्म मरण भवसिन्धुतरण, पतित पुरुष उद्धार शरण।।1।।

॥स्तोत्र महिमा॥

श्री जिनवाणी तत्त्व विभूषण, आदि जिनेश स्तुति करणन।

सुबुधज्ञान आगम प्रवीण वाणी विनय गुणन गायन।।

शब्द मनोहर अर्थ गुणन, तीन भुवन मन मुग्ध करण।

आदि जिनेश विस्मय विशेष, मैं मंदमति स्तुति वाचन।।2।।

॥शरण ग्रहण॥

देव देवेन्द्र पूजित सिंहासन, श्री जिनेश की शरण ग्रहण।

सुबुध प्रवीण हैं चरण लीन, निर्लज्य दोन स्तुति वर्णन।।

बाल सुलभ बुद्धि कोमल, चन्द्र बिम्बसलिल दर्शन।

पूर्ण चन्द्र की कांति किरण, बाल बुद्धि तुरन्त ग्रहण।।3।।

।।सुगुण समुद्र।।

हे गुण समुद्र अगम्य अपार, गुण गुणीन नहीं पावें पार।

प्रलय पवनहै वेग विशाल, नक्र चक्र उछलें विकराल।।

भीषण गर्जन भयद तरंग, भुजबाहु दल किम जैवतं।

सर्व गुणन विभूषण धाम, तुम गुण भूषण हैं अभिराय।।4।।

।।भक्ति भावना।।

हे ! मुनिनाथ मैं निबल हीन, बुद्धि विहीन मैं शरण ग्रहण।

भक्ति वशी मैं करूण दीन, विनीत भाव स्तुति वर्णन।।

प्रीति वशी मृगी शावक रक्षण, निबल, सबल सिंह से घर्षण।

हे मुनीश ! तुव भक्ति भजन, अभय दान दो चरण शरण।।5।।

॥लघु अल्पमति॥

मति हीन मैं दीन करुण, विज्ञ विबुध हांसी का कारण।

उर भक्ति भाव आनन्द मगन, मुखर मनोज भक्ति वर्णन।।

मधु मास सरस जीवन उद्यम, मनमनोज सुन्दर वर्णन।

आम्रमञ्जरी शोभा अनुपम, कोकिल कण्ठ मधुर वर्णन।।6।।

॥भव भय भंजन॥

विश्‍व विभु तुव भक्ति करण, जन्म मरण भव भय भंजन।

पाप ताप क्षण क्षीण करण, अशुभ बंध निर्मूल स्वयं।।

सम्पूर्ण लोक अज्ञान अंधेरा, भ्रमर असित निशानीलम।

सूर्य प्रभास उजास किरण, सर्व लोक अंधियार हरण।।7।।

॥भक्ति वरणन॥

हे त्रिभुवन ! नाथ भुवन भूषण, भक्ति प्रभाव स्तुति वर्णन।

तुव भक्ति प्रभाव हुआ तत्पर, सुजन मन हारी आकर्षण।।

ज्यों जल कमल पत्र वर्षण, मुक्ताङ्गल द्युति विस्तारण।

श्रीजिनवाणी शब्द गुणन, मणी माल स्तुति अर्पण।।8।।

।।स्तवन प्रभाव।।

निर्दोष निःमल स्तवन पूजन, सकल दोष पापों का नाश।

जगत जीव पाप तापहत्, कथन कथानक भव आताप।।

अति दूर है भावु भुवन भर, सहस्र किरण प्रयास करण।

खिलते हैं बहु कुसुम कमल, सलित सरोवर पंक समल।।9।।

।।विभूति वन्दन।।

विस्मय विहीन हे ! जग भूषण, महान विभूति के करतार।

सत्य प्रभासी हो गुण सागर, तुव समान होते सुख सार।।

समरथ स्वामि के हम अनुचर, स्तुतिकरण जग जन आधार।

हे भगवन ! ते आश्रित भविजन, विभू विभूति ते भव पार।।10।।

।।निर्मल छवि।।

निर्निमेष है छबि दर्शन, सुखद दरश है योग्य गुणन।

लख अन्य देव नहीं तृप्त नयन, पुनः पुनः रूपित छबि दर्शन।।

क्षीर समुद्र का मिष्ट मनोहर, दुग्ध धवल सापावन नीर।

खार नीर है लवण सिंधु का, स्वयं पान नहीं करते धीर।।11।।

॥चन्द्र गुणन तुलना॥

शांत सरस अणुओं की मूरत, तुसतन लसें सीमित आधार।

चित्त हरण, हैं, छबि सुन्दर, अन्य नहीं तुम तन आकार।।

तीन भुवन में अनुपम सुन्दर, चित्तहारी रुपम् अविकार।

हे जगदीश ! सौंदर्य सुधाकर, शान्त मूरति छाया सुखकार।।12।।

।।दिव्य द्युति।।

निर्विकार शान्त छबि सुन्दर सुर नर नाग नयनमोहन।

तीन लोक में अनुपम सुन्दर, कमल पुष्प द्युति हीन करण।।

चन्द्र मुखम् है कलिल कालिमा, पलास पत्र द्युति हीन दिवस।

हे भगवन् ! अपरूप अनुपम, छबि सुन्दर हैं कांति मुखम्।।13।।

।।शुभ ज्योति।।

पूर्ण चन्द्र उद्योत कलाधर, चन्द्र कांति हे भुवन भरण।

ज्योति पुंज हे गुण भूषण, दिव्य द्युति त्रिजग लंघंत।।

मिला आसरा हे जगदीश्‍वर ! विराम नहीं इच्छित विचरण।

समरथ स्वामि शरण ग्रहण, दिग्दिंगत मनोज्ञ गुणन।।14।।

।।निर्विकर निश्चल।।

सुरसुन्दरी अपरुप अनूपी, समर्थ नहीं तुव मन मोहन।

अचरज की नहीं बात प्रभु, अडिग रहें, नहीं चित्त चंचल।।

प्रलय पवन अति वेग प्रबल, कम्पित भूधर शिखर उतुंग।

अडोल अकम्प विराजें प्रभुवर, शिखर सुमेरु सम निश्‍चल।।15।।

॥ज्योतिर्मयी जन्म॥

जननि जनति है सुत शतैक, तुम सम सुक नहीं जने अनेक।

पूर्ण गगन द्युतितारागण, पूरब दिशाइक उदय अरुण।।

ज्योतिर्मयी है सूर्य किरण, नत्यि प्रकाशी भुवन भरण।

सूर्य प्रकाशी अनन्त भुवन इक पूर्व दिशा करती धारण।।22।।

।।दिव्य दिवाकर।।

मुनि मान तुंगसम योगीगण, परम पुरुष शुभ संबोधन।

हे ! दिव्य दिवाकर तमस हरण, ज्ञान ज्योति प्रकाश करण।।

करते तुम समकल्याण शिवं सर्व साधु मृत्यु विजयंत।

अन्य देव नहीं शिवमग गामी मुक्ति मार्ग नहीं किया चलन।।23।।

॥ज्ञान स्वरूप॥

हे ! अविनाशी विभू अगम्य अतिशय पूर्ण असंख्य गुणन।

अनंग केतु ही काम विनाशन, आदि विधाता निर्मल ब्रहम।।

एको आत्म गुण ज्ञान अनेकं, विदित योग योगेशं शुभं।

हे ! ज्ञान रुप निर्मल स्वरुप, संत पुरुष करते गायन।।24।।

॥ज्ञान गणी परमेश्वर॥

सुधीमान हो ज्ञान गुणी बुद्धि बोध विबुध वन्दन।

त्रिभुवन नाथ तुमही शंकर, पाप हनि कल्याण करण।।

विधि विधाता सकल विश्‍व के, मुक्ति मार्ग निर्देश करण।

परम पुरुष तुम ही परमेश्‍वर सुरपति नरपति नारायण।।25।।

॥नमो नमन॥

नमो नमन, हे त्रिभुवन नाथ, विपद हरण मंगल कारण।

नमो नमन हे ! जगन्नाथ, निर्मल रत्न भुनि भूषण।।

नमो नमन् हे ! जिन ईश्‍वर भव उद्धि शोष तरण तारण।।26।।

॥अनन्त सुगुण भूषण॥

सर्वज्ञ देव सुगुण संगम, विस्मय नहीं गुण ज्ञान भरण।

अन्य देव है आश्रित द्षण, सर्व देव अति गर्व ग्रहण।।

दोषों वे नहीं देखे प्रभुवर, नहीं किया सुपने में दर्शन।

ज्ञान सुधाकर अनन्त गुणन, जगत वंद्य कल्याण करण।।27।।

॥प्रातिहार्य अशोक वृक्ष॥

उच्च अशोक तरू तन शोभन, अर्ध्य प्रकाशी सूर्य किरण।

निर्मल रूप स्वरूप अनूपं, शोभित सूर्य अनन्त भुवन।।

उजली विश्‍व उजास किरण, भ्रम तम भार विनाश करण।

घनघोर तिमिर उदित अरूण, ज्ञान ज्योति अज्ञान हरण।।28।।

॥प्रातिहार्य सिंहासन॥

सुन्दर मणी जड़ा सिंहासन, कनक वरण सुन्दर शोभन।

मनमोहन है मूर्ति मनोरम, कनक कान्ति सुन्दर दर्शन।।

ऊंचा शीश शिखर उदयाचल सूरज सहस्र किरण शोभन।

उर्ध्व गगन सुन्दर बितान तना चन्दोवासहस्र किरण।।29।।

॥प्रातिहार्य चमर॥

दुरत शीश शपर चमर चांदनी, कुंद पहुप शोभा अनुपन।

स्वर्ण मयी है देह विभूषण, शरीर कान्ति शोभा वर्द्धन।।

चन्द्र किरण समजल वर्षण, शिखर सुमेरू शोभा अनुपम।

स्वर्ण मयी शोभा सुमेरू की, उच्च उभय तट जल पावन।।30।।

॥प्रातिहार्य छत्र॥

तीन छत्र द्युति लसत शीश, चन्द्र विम्ब सम विस्तारण।

भानु भुवन उतेज किरण, तना चन्दोवा शीतकरण।।

मोती झालर छबि मनोरम, रचना अति सुंदर शोभन।

हे ! प्रभो त्रिजग परमेश्‍वर, प्रभुता प्रसार शोभा वर्णन।।31।।

॥प्रातिहार्य दुंदुभि॥

गंभीर नाद ध्वनि अति गर्जन, दशों दिशाऐं आपूरण।

तीन लोक जीव शिव साधन, विभुति कुशल है शुभ संयम।।

सद् धर्मराज यशो गायन, जै जै जय जिनवर घोषण।

दुंदुभि नाद ध्वनि अति गुंजन, यशोगान द्युलोक भरण।।32।।

॥प्रातिहार्य कल्पवृक्ष॥

मंदार नमेरू नन्दन वनके, कल्प कुसुम गगन वर्षण।

पुष्प सुगंधी गंध उदक, मन्द मनोहार मधुर पवन।।

हैं ! कल्प वृक्ष देवो पुनीत, ङ्गल पुष्प से वचन मनोरम।

हे ! जिनेश दिव्य ध्वनि रूप, गंध सुधारस जल वर्षण।।33।।

॥प्रातिहार्य भामण्डल॥

दिव्य प्रभा मण्डल की शोभन, कोटि सूर्य सी कांति किरण।

शोभा सुन्दर अति मनोरम, जगत वस्तु द्युति क्षीण करण।।

ताप हीन हैं सूर्य किरण, शीतल चन्द्र आनन्द भुवन।

हे ! निर्मल ज्योति तमस हरण, शोभा सुंदर आनंद भरण।।34।।

॥प्रातिहार्य दिव्यध्वनि॥

स्वर्ग मोक्ष मारग दर्शन, युगपद धर्म का मर्म कथन।

ईष्ट मिष्ट वाणी विमलम्, अर्थ सुगम्य है तत्त्व कथन।।

दिव्य ध्वनि धन सागर्जन, भाषा गर्भित हित साधन।

श्री जिनवाणी भाषा भूषण स्वभाव बोधि सुगुण योजन।।35।।

॥चरण कमल रचना॥

ङ्गूल खिलें हैं स्वर्ण वर्ण के, कमल कुंज को कांति किरण।

पाद पदम नख अति सुन्दर, चतु र्दिशा शोभा वर्द्धन।।

हे ! जिनवर तुव चरण धरण, कमल पुष्प की कांति किरण।

सुर सुन्दर कमलों की रचना, विबुध पाद किम शोभा वर्णन।।36।।

॥धर्म देशना समवशरण॥

हे ! दिव्य देवता देव जिनेन्द्र, धर्म उपदेशन समवशरण।

अन्य देव नहीं महिमा मंडित धर्म उपदेशन समर्थ स्वयं।।

दिनकर प्रभा उजास किरण, दिवस तारागण किम दर्शन।

हे ! विश्‍व विभूति धर्म देशना, अज्ञान अंध तिमिर नाशन।।37।।

॥गज-भय निवारण॥

मद अवलिपृ कपोल मूल गंड स्थल अतिमलीन चपल।

मत्तगत्तगयंद शब्द गुंजन क्रोध उद्धत अति धारण।।

एसो गज विकराल काल भीति नहीं हुए भविजन।

विपद अभय है शरण लीन भक्ति भाव महिमा गायन।।38।।

॥सिंह भय निवारण॥

मद मत्त भ्रमर शीश आघात, रक्तसने गज मुक्ता विखरण।

वे सुरम्य धरणि सिगार करें, पंक्ति बद्ध जस हरिण चलन।।

चिंतरहित स्वछंद चलन, अवश मृगपति अनर्थ करण।

भूधर ओट हैं युगल चरण, शरण ग्रहण सर्वविपद हरण।।39।।

॥दावानल भय निवारण॥

प्रलय पवन अति वेग चलन, उत्तेज तेज अगिन वर्द्धन।

चहुँदिशा आरक्त आंगरे, दावानल प्रलय सा नर्तन।।

संसार समूल नाश करण को, उच्च भयंकर वेग प्रबल।

प्रचण्ड अग्नि लखें सम्मुख, नाम कीर्ति जल शमन करण।।40।।

॥नाग भय निवारण॥

कोकिल कंठ समान श्याम, रक्त नयन अति क्रुद्ध भयम्।

ङ्गण उच्च करें ङ्गुंकार भरें, चंचल गति अति वेग प्रबल।।

पद पाद दलन निःशंकगमन, विष निर्विष प्रभाव हरण।

नाग दमनी तुम नाम जपन, हृदय वास निःशंक गमन।।41।।

॥पर चक्र भय निवारण॥

गजपति तुरंग घन सा गर्जन, भीम नाद अति शब्द प्रचण्ड।

भूपति का महाप्रबल सैन्य, सबल शत्रु निस्तेज करण।।

हे ! जिनेश तुम नाम जपन, सूर्य किरण अंधियार हरण।

प्रबल वेग हो शांत सुगम, सबल शत्रु विनाश करण।।42।।

॥अरि भय निवारण॥

भालों की नोकों से भेदन, बहे गज रक्त का सलिल प्रवाह।

आतुर हैं वे लाल तरण को, समर शूर भीषण उन्माद।।

जय दुर्जेय अरि प्रबल पुरुष, पाद पद्म आश्रय बन रूप।

हे ! आदीश विजयंत वीर वे, चरण शरण गहते अनुरूप।।43।।

॥समुद्र भय निवारण॥

प्रलय काल सा भीषण नर्तन, क्षुब्द हुए मगर मच्छ भयम्।

बड़वा अगिन दाह नीर निक्तय, भीषण सिन्धु वेग प्रबल।।

उच्च उत्तेज विकराल तरंगे, पार यान सागर जयवंत।

हे ! संताप ताप हत स्वामिन, सहज तिरे जपते भगवंत।।44।।

॥रोग भय निवारण॥

भीषण जलोदर रोग भरण, पीड़ित हुए वे शरण ग्रहण।

है चिन्त्य दशा अतिरोगी तन, आश निराश जीवन बंधन।।

हे ! प्रभो तिन देह दाह तन, चरण कमल रज रूपी अमृत।

देह छुवन मृत्यु रोग हरण, कामदेव सम सुन्दर तन।।45।।

॥बंधन भय निवारण॥

पांव कंठ बेड़ीबली बंधन, देह बंधो लोह साकत भारण।

शीत उष्ण ऋतु तेज सहन, शरीर छिला पग जंघा धारण।।

हे ! जिनेश तुम नाम जपन, जीर्ण तृण योगी बंधन।

झड़े स्वयं वे लोहित बंधन, स्वर्ण प्रभा तन काँति किरण।।46।।

॥निर्भय करण॥

महामत मृगराज ऐरावत, संग्राम सर्प सागर दावानल।

महारोग उदर भीषण वेदन, सकल वेदना स्वयं गलन।।

हे प्रभो भक्ति मान पुरुष, गुणन गान अरु पाठ पठन।

विपद् हरण भव भय मंजन, निर्भय करण शिव सुखम्।।47।।

॥मंगल कल्याण॥

हे ! जिनेन्द्र गुण ज्ञान अनंते, सुमन मनोज्ञ मालिका गुंथन।

विविध वर्ण के अक्षर सुन्दर, कंठ माल भक्ति वर्णन।।

वे भव्य पुरुष आकंट धरण, धन धान्य सम्पति अर्जन।

महामुनि वे मान तुंग सम, तपो लक्ष्मी कल्याण शिवं।।48।।

॥श्रद्धा सुमन॥

भाषा भक्तामर कवित्त, भव्य जीवेम धर्म धारण।

विनय विवेक श्रद्दान ग्रहण भक्ति भाव ‘‘ज्ञानेश’’ नमन।।

॥इति श्री आदिनाथ स्तोत्र सम्पूर्णम्॥

 

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