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भक्तामरस्तोत्र (श्रीमानतुङ्गाचार्य-विरचित)

भक्तामरस्तोत्र

(श्रीमानतुङ्गाचार्य-विरचित)

भक्तामर- प्रणतमौलि- मणिप्रभाणा-

मुद्योतकं     दलित-पापतमो-वितानम् |

सम्यक्प्रणम्य   जिनपादयुगं   युगादा-

वालम्बनं   भवजले   पततां   जनानाम् ॥१ ॥

य:   संस्तुत:   सकलवाङ्मयतत्वबोधा-

दुद्भुत-बुद्धि-पटुभि:   सुरलोकनाथै: |

स्तोत्रै-     र्जगत्त्रितयचित्त-   हरैरुदारै:

स्तोष्ये किलाहमपि   तं   प्रथमं   जिनेन्द्रम् ॥२ ॥

बुद्ध्या   विनापि विबुधार्चितपादपीठ !

स्तोतुं   समुद्यतमति- र्विगत- त्रयोऽहम् |

बालं   विहाय   जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब-

मन्य: क इच्छति जन:   सहसा   ग्रहीतुम् ॥ ३ ॥

वक्तुं गुणान्   गुणसमुद्र ! शशामकान्तान्,

कस्ते क्षम: सुरगुरुप्रतिमोऽपि   बुद्ध्या |

कल्पान्त- कालपवनोद्धत- नक्र- चक्रं,

को   वा तरीतुमलमम्बुनिधिं   भुजाभ्याम् ॥४ ॥

सोऽहं तथापि   तव   भक्तिवशान्मुनीश !

कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्त: |

प्रीत्याऽत्मवीर्यमविचार्य   मृगी मृगेन्द्रं,

नाभ्येति किं निजशिशो: परिपालनार्थम् ॥५ ॥

अल्पश्रुतं   श्रुतवतां   परिहास-धाम,

त्वद्भक्तिरेव   मुखरीकुरुते   बलान्माम् |

यत्कोकिल: किल   मधौ   मधुरं विरौति,

तच्चाम्रचारुकलिका-     निकरैकहेतु ॥६ ॥

त्वत्संस्तवेन     भव-सन्तति-सन्निबद्धं,

पापं   क्षणात् क्षय-मुपैति शरीरभाजाम् |

आक्रान्त-   लोक-   मलिनीलमशेषमाशु,

सूर्यांशुभिन्नमिव     शार्वर-मन्धकारम् ॥७ ॥

मत्वेति   नाथ !   तव   संस्तवनं   मयेद-

मारभ्यते   तनुधियाऽपि तव   प्रभावात् |

चेतो   हरिष्यति   सतां     नलिनीदलेषु,

मुक्ताङ्गलद्युतिमुपैति         ननूद-बिन्दु: ॥ ८ ॥

आस्तां   तव     स्तवनमस्तसमस्त-दोषं,

त्वत्समथाऽपि   जगतां   दुरितानि हन्ति |

दूरे     सहस्रकिरण:     कुरुते     प्रभैव,

पद्माकरेषु     जलजानि     विकासभाञ्जि   ॥ ९ ॥

नात्यद्भुतं   भुवन-भूषण   !   भूतनाथ !

भूतैर्गुणर्भुवि           भवन्तमभिष्टुवन्त: |

तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा,

भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ? ॥१० ॥

दृष्ट्वा           भवन्तमनिमेषविलोकनीयं,

नान्यत्र   तोषमुपयाति   जनस्य   चक्षु: |

पीत्वा   पय:   शशिकरद्युति-दुग्धसिन्धो:,

क्षारं जलं जलनिधे-रसितुं क इच्छेत् ? ॥११ ॥

यै:   शान्तरागरुचिभि:   परमाणुभिस्त्वं,

निर्मापितस्त्रिभुवनैक-         ललामभूत !

तावन्त   एव   खलु   तेऽप्यणव:   पृथिव्यां,

यत्ते   समानमपरं   न   हि   रूपमस्ति ॥१२ ॥

वक्त्रं   क्व   ते सुर- नरोरग- नेत्रहारि,

नि:शेष- निर्जित- जगत्त्रितयोपमानम् |

बिम्बं   कलम-मलिनं   क्व निशाकरस्य,

यद्वासरे   भवति पाण्डु-पलाश-कल्पम् ॥१३ ॥

सम्पूर्ण- मण्डल- शशाम- कलाकलाप-

शुभ्रा   गुणास्त्रिभुवनं   तव   ल‘यन्ति |

ये       संश्रितास्त्रिजगदीश्‍वर   !   नाथमेकं,

कस्तान्निवारयति     संचरतो   यथेष्टम् ॥१४ ॥

चित्रं   किमत्र   यदि   ते   त्रिदशाङ्गनाभि-

र्नीतं   मनागपि   मनो   न विकारमार्गम् |

कल्पान्त-काल- मरुता     चलिताचलेन,

किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ? ॥१५ ॥

निर्धूम-     वर्तिरपवर्जित-   तैलपूर:,

कृत्स्नं     जगत्त्रयमिदं     प्रकटीकरोति |

गम्यो   न   जातु   मरुतां   चलिताचलानां,

दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश: ॥१६ ॥

नास्तं     कदाचिदुपयासि   न   राहुगम्य:,

स्पष्टीकरोषि   सहसा   युगपज्जगन्ति |

नाम्भोधरोदर-   निरुद्ध- महाप्रभाव:,

सूर्यातिशायि-महिमाऽसि मुनीन्द्र ! लोके ॥१७॥

नित्योदयं     दलित- मोह-   महान्धकारं,

गम्यं   न   राहुवदनस्य   न   वारिदानाम् |

विभ्राजते   तव     मुखाब्जमनल्प-कान्ति,

विद्योतयज्जगदपूर्व-शशाम-बिम्बम् ॥१८ ॥

किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा ?

युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु     तमस्सु   नाथ !

निष्पन्नशालिवनशालिनि       जीवलोके,

कार्यं कियज्जलधरैर्जलभार-नम्रै: ॥१९ ॥

ज्ञानं   यथा   त्वयि   विभाति   कृतावकाशं,

नैवं   तथा   हरिहरादिषु   नायकेषु |

तेज:स्ङ्गुरन्मणिषु   याति   यथा   महत्त्वं,

नैवं   तु   काचशकले   किरणाकुलेऽपि ॥२० ॥

मन्ये वरं   हरिहरादय     एव   दृष्टा,

दृष्टेषु   येषु     हृदयं     त्वयि   तोषमेति |

किं   वीक्षितेन भवता   भुवि   येन नान्य:,

कश्‍चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि ॥२१ ॥

स्त्रीणां   शतानि   शतशो जनयन्ति पुत्रान्,

नान्या   सुतं   त्वदुपमं   जननी   प्रसूता |

सर्वा   दिशो   दधति   भानि   सहस्ररश्मिं,

प्राच्येव     दिग्जनयति   स्ङ्गुरदंशुजालम् ॥२२ ॥

त्वामामनन्ति   मुनय:   परमं   पुमांस-

मादित्यवर्णममलं     तमस:   परस्तात् |

त्वामेव   सम्यगुपलभ्य   जयन्ति   मृत्युं,

नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र ! पन्था: ॥२३ ॥

त्वामव्ययं   विभु-मचिक्त्य-मसंख्यमाद्यं,

ब्रह्माण- मीश्‍वर- मनन्त- मन‘केतुम् |

योगीश्‍वरं     विदित- योग- मनेक- मेकं,

ज्ञानस्वरूपममलं     प्रवदन्ति     सन्त: ॥२४ ॥

बुद्धस्त्वमेव   विबुधार्चितबुद्धिबोधात् -

त्वं     शमरोऽसि भुवनत्रय-शमरत्वात् |

धातासि धीर !   शिवमार्गविधेर्विधानात्,

व्यक्तं   त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५ ॥

तुभ्यं   नमस्त्रिभुवनार्ति- हराय   नाथ !

तुभ्यं   नम:   क्षितितलामलभूषणाय |

तुभ्यं     नमस्त्रिजगत:     परमेश्‍वराय,

तुभ्यं नमो   जिन !   भवोदधि-शोषणाय ॥२६ ॥

को   विस्मयोऽत्र   यदि   नामगुणैरशेषै-

स्त्वं   संश्रितो   निरवकाशतया   मुनीश !

दोषैरुपात्त- विविधाश्रय- जात- गर्वै:,

स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥२७ ॥

उच्चैरशोकतरुसंश्रित-         मुन्मयूख-

माभाति   रूपममलं   भवतो   नितान्तम् |

स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त- तमो- वितानं,

बिम्बं   रवेरिव   पयोधर- पार्श्‍ववर्ति ॥२८ ॥

सिंहासने       मणिमयूखशिखाविचित्रे,

विभ्राजते   तव     वपु:कनकावदातम् |

बिम्बं         वियद्विलसदंशुलतावितानं,

तु‘ोदयाद्रिशिरसीव         सहस्ररश्मे:   ॥२९ ॥

कुन्दावदात- चलचामर- चारु- शोभं,

विभ्राजते   तव वपु:   कलधौतकान्तम् |

उद्यच्छशाम-   शुचिनिर्झर-   वारिधार-

मुच्चैस्तटं   सुरगिरेरिव   शातकौम्भम् ॥३० ॥

छत्रत्रयं   तव   विभाति   शशामकान्त-

मुच्चै:   स्थितं   स्थगितभानुकरप्रतापम् |

मुक्ताङ्गल- प्रकर- जाल- विवृद्ध-शोभं,

प्रख्यापयत् त्रिजगत: परमेश्‍वरत्वम् ॥३१ ॥

गम्भीरतार- रव- पूरित-   दिग्विभाग-

स्त्रैलोक्यलोक- शुभस‘म-भूतिदक्ष: |

सद्धर्मराजजय- घोषण- घोषक:   सन्,

खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशस: प्रवादी ॥३२ ॥

मन्दार- सुन्दर-   नमेरु-   सुपारिजात-

सन्तानकादि- कुसुमोत्कर-वृष्टिरुद्घा |

गन्धोदबिन्दुशुभ-       मन्दमरुत्प्रपाता,

दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा ॥३३ ॥

शुम्भत्प्रभा- वलय- भूरि-विभा विभोस्ते,

लोकत्रये   द्युतिमतां   द्युतिमाक्षिपन्ती |

प्रोद्यद्दिवाकर- निरन्तर- भूरि- संख्या

दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्या ॥३४ ॥

स्वर्गापवर्ग-   गममार्ग- विमार्गणेष्ट:,

सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक- पटुस्त्रिलोक्या: |

दिव्यध्वनि-र्भवति   ते     विशदार्थसर्व-

भाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणै: प्रयोज्य: ॥३५ ॥

उन्निद्रहेमनवपमज-         पुञ्जकान्ति,

पर्युल्लसन्नखमयूख-     शिखाभिरामौ |

पादौ पदानि   तव   यत्र जिनेन्द्रधत्त:,

पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति ॥३६ ॥

इत्थं   यथा   तव     विभूतिरभूज्जिनेन्द्र !

धर्मोपदेशनविधौ   न   तथा       परस्य |

यादृक्   प्रभा   दिनकृत:   प्रहतान्धकारा,

तादृक् कुतो   ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि ॥३७ ॥

श्‍च्योतन्मदाविल- विलोल- कपोलमूल-

मत्तभ्रमद्भ्रमर- नाद- विवृद्ध- कोपम् |

ऐरावताभ-   मिभ-   मुद्धत- मापतन्तं,

दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३८ ॥

भिन्नेभकुम्भ- गलदुज्ज्वल- शोणिताक्त-

मुक्ताङ्गल- प्रकर- भूषित- भूमिभाग: |

बद्धक्रम:     क्रमगतं   हरिणाधिपोऽपि,

नाक्रामति     क्रमयुगाचलसंश्रितं   ते   ॥३९ ॥

कल्पान्तकाल- पवनोद्धत- वह्निकल्पं,

दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्ङ्गुलि‘म् |

विश्‍वं   जिघत्सुमिव   सम्मुखमापतन्तं,

त्वन्नामकीर्तनजलं       शमयत्यशेषम्     ॥४० ॥

रक्तेक्षणं     समद-कोकिल-कण्ठ-नीलं,

क्रोधोद्धतं     ङ्गणिनमुत्ङ्गणमापतन्तम् |

आक्रामति     क्रमयुगेन         निरस्तशम-

स्त्वन्नाम- नागदमनी   हृदि यस्य पुंस: ॥४१ ॥

वल्गत्तुर‘-     गजगर्जित-   भीमनाद-

माजौ   बलं बलवता३मपि   भूपतीनाम् |

उद्यद्दिवाकर- मयूख-   शिखा- पविद्धं,

त्वत्कीर्तनात्तम     इवाशु भिदामुपैति   ॥४२ ॥

कुन्ताग्रभिन्न- गजशोणित-   वारिवाह-

वेगावतार-   तरणातुर- योधभीमे |

युद्धे   जयं     विजितदुर्जयजेयपक्षा-

स्त्वत्पादपमजवनाश्रयिणो     लभन्ते ॥४३ ॥

अम्भोनिधौ क्षुभितभीषण- नक्र- चक्र-

पाठीनपीठ-भयदोल्वण-     वाडवाग्नौ |

र‘त्तर‘-   शिखरस्थित- यानपात्रा-

स्त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद् व्रजन्ति ॥४४ ॥

उद्भूतभीषण- जलोदर- भारभुग्ना:,

शोच्यां   दशामुपगताश्‍च्युतजीविताशा: |

त्वत्पादपमजरजोऽमृत-     दिग्धदेहा,

मर्त्या   भवन्ति   मकरध्वजतुल्यरूपा: ॥४५ ॥

आपादकण्ठ- मुरुश्रृंखल- वेष्टिताङ्गा,

गाढं     बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजङ्घा: |

त्वन्नाममन्त्रमनिशं   मनुजा:   स्मरन्त:,

सद्य: स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ॥४६ ॥

मत्तद्विपेन्द्र-   मृगराज-   दवानलाहि-

संग्राम- वारिधि- महोदर- बन्धनोत्थम् |

तस्याशु   नाशमुपयाति   भयं     भियेव,

यस्तावकं   स्तवमिमं   मतिमानधीते ॥४७ ॥

स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र ! गुणै-र्निबद्धां,

भक्त्या मया रुचिरवर्ण-विचित्रपुष्पाम् |

धत्ते   जनो   य   इह   कण्ठगतामजस्रं,

तं मानतुङ्गमवशा समुपैति   लक्ष्मी: ॥४८ ॥

 

 

 

 

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