सप्तर्षि पूजा प्रथम नाम श्रीमन्व दुतिय स्वरमन्व ऋषीश्वर | तीसरे मुनि श्री निचय सर्वसुन्दर चौथो वर ॥ पञ्चम श्री जयवान विनयलालस षष्ठम भनि | सप्तम जय मित्राख्य सर्व चारित्र-धाम गनि ॥ ये सातों चारण-ऋद्धि-धर, करूं तास पर थापना | मैं पूजूँ मन वचन काय करि, जोसुख चाहूँ आपना ॥ ॐ ह्रीं चारणर्द्धिधर श्री सप्तर्षीश्वरः ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं चारणर्द्धिधर श्री सप्तर्षीश्वरः ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं चारणर्द्धिधर श्री सप्तर्षीश्वरः ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | शम-तीर्थ-उद्भव-दल-अनुपम, मिष्ट शीतल लायकैं | भव-तृषा-कंद-निकंद-कारण, शुद्ध घट भरवायकैं ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं | ता करें पातक हरें सारे, सकल आननद विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्री चारणर्द्धिधरमन्व स्वरमन्व निचय सर्वसुन्दर जयवान विनयलालस जयमित्रर्षिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा | श्रीखण्ड कदलीनन्द केशर, मन्द मन्द घिसायकैं | तसु गंध प्रसारित दिग-दिगन्तर, भर कटोरी लायकैं ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं | ता करें पातक हरें सारे, सकल आननद विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो संसारताप विनाशनाय चंदनं नि. स्वाहा | अति धवल अक्षत खण्ड-वर्जित, मिष्ट राजन भोग के | कलधौत-थारा भरत सुन्दर, चुनित शुभ उपयोग के ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं | ता करें पातक हरें सारे, सकल आननद विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो अक्षयपद प्राप्तये अक्षतं नि. स्वाहा | बहु-वर्ण सुवरण-सुमन आछै, अमल कमल गुलाब के | केतक चंपा चारु मरुआ, चुने निज कर चावके ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं | ता करें पातक हरें सारे, सकल आननद विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा | पकवान नाना भॉंति चातुर, रचित शुद्ध नये-नये | सदमिष्ठ लाडू आदि भर बहु, पुरटके थारा लये ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं | ता करै पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा | कलधौत-दीपक जड़ित नाना, भरित गोघृत-सारसों | अतिज्वलितजग-मग ज्योतिजाकी, तिमिर नाशनहारसो ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं | ता करें पातक हरें सारे, सकल आननद विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा | दिक्-चक्र गन्धित होत जाकर, धूप दश-अंगी कही | सो लाय मन-वच-काय शुद्, लगाय कर खेऊँ सही ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं | ता करें पातक हरें सारे, सकल आननद विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा | बर दाख खारक अमित प्यारे, मिष्ट चुष्ट चुनायकैं | द्रावडी दाडिम चारु पुंगी, थाल भर-भर लायकैं ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं | ता करें पातक हरें सारे, सकल आननद विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो मोक्ष ङ्गल प्राप्तये ङ्गलं निर्वपामीति स्वाहा | जल गन्ध अक्षत पुष्पचरुवर, दीप धूप सु लावना | ङ्गल ललित आठौं द्रव्य-मिश्रित, अर्घ्य कीजे पावना ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं | ता करें पातक हरें सारे, सकल आननद विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्योऽनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | जयमाला (घत्ता) वन्दूँ ऋषिराजा, धर्म-जहाजा, निज-पर-काजा करत भले | करुणा के धारी, गगन-बिहारी दुख अपहारी, भरम दले ॥ काटत कजम-ङ्गन्दा, भवि-जन वृन्दा, करत अनन्दा चरणन में | जो पूजैं ध्यावैं, मंगल गावैं, ङ्गेर न आवैं भव-वन में ॥ (पद्धरि छन्द) जय श्रीमनु मुनिराज महन्त, त्रस-थावर की रक्षा करन्त | जय मिथ्या-तम-नाशक पतंग, करुणा रस-पूरित अंग-अंग ॥ जय श्रीस्वरमनु कलंकरूप, पद-सेव करत नित अमर-भूप | जय पञ्च अक्षत जीते महान, तप तपत देह कंचन-समान ॥ जय निचय सप्त तत्वार्थ भास, तप-रमातनों तनमें प्रकाश | जय विषय-रोध सम्बोध भान, परणति के नाशन अचल ध्यान ॥ जय जयहिं सर्वसुन्दर दयाल, लखि इन्द्रजालवत जगत-जाल | जय तृष्णाहारी रमण राम, निज परिणति में पायो विराम ॥ जय आनन्दघन कल्याणरूप, कल्याण करत सबकौ अनूप | जय मद-नाशन जयवानदेव, निरमद विरचित सब करत सेव ॥ जय जयहिं विनयलालस अमान, सब शत्रु मित्र जानत समान | जय कृशित-काय तप के प्रभाव, छवि छठा उड़ति आनन्द दाय ॥ जय मित्र सकल जग के सुमित्र, अनगिनत अधम कीने पवित्र | जय चन्द्र-वदन राजीव नैन, कबहूँ विकथा बोलत न बैन ॥ जय सातों मुनिवर एक संग, नित गगन-गमन करते अभंग | जय आये मथुरापुर मझार, तहँ मरी रोग को अति प्रचार ॥ जय जय तिन चरणनि प्रसाद, सब मरी देवकृत भई बाद | जय लोक करे निर्भय समस्त, हम नमत सदा नित जोड़ हस्त ॥ जय ग्रीष्म-ऋतु पर्वत मझार, नित करत अतापन योगसार | जय तृषा-परीषह करत जेर, कहूँ रंच चलत नहिं मन सुमेर ॥ जय मूल अठाइस गुणनधार, तप उग्र तपत आनन्दकार | जय वर्षा-ऋतु में वृक्ष तीर, तहं अति शीतल झेलत समीर ॥ जय शीत-काल चौपट मझार, कै नदी सरोवर तट विचार | जय निवसत ध्यानारूढ़ होय, रंचक नहिं भटकत रोय कोय ॥ जय मृतकासन वज्रासनीय, गौदूहन इत्यादिक गनीय | जय आसन नानाभॉंति धार, उपसर्ग सहत ममता निवार ॥ जय जपत तिहारो नाम कोय, लख पुत्र पौत्र कुल वृद्धि होय | जय भर लक्ष अतिशय भण्डार, दारिद्रतनो दुःख होय छार ॥ जयचोर अग्नि डाकिन पिशाच, अरु ईति भीति सब नसत सांच | जय तुम सुमरत सुख लहत लोक, सुर असुर नमत पद देत धोक ॥ (रोला छन्द) ये सातों मुनिराज, महातप लछमी धारी | परम पूज्य पद धरैं सकल जग के हितकारी ॥ जो मन वचन तन शुद्ध होय सेवे औ ध्यावै | सो जन ‘‘मनरंगलाल’’, अष्ट ऋद्धिनकौं पावै ॥ (दोहा) नमन करत चरनन रत, अहों गरीब निवाज | पञ्च परावर्तननितैं, निरवारो ऋषिराज ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यः पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | |