क्षमावणी-पूजा छप्पय छन्द अंग क्षमा जिन-धर्म तनो दृढ़-मूल बखानो | सम्यक् रतन सँभाल हृदय में निश्चय जानो ॥ तज मिथ्या विष मूल और चित्त निर्मल ठानो | जिनधर्मी सौं प्रीत करो सब पातक भानो ॥ रत्नत्रय गह भविक-जन,जिन-आज्ञासम चालिये | निश्चय कर आराधना, करम-रास को जालिये ॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रय ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रय ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: | ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रय ! अत्र मम सन्निहितं भव भव वषट् | नीर सुगन्ध सुहावनो, पदम-द्रह को लाय | जन्म-रोग निरवारिये, सम्यक् रतन लहाय ॥ क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्-चारित्रेभ्यो नमः जलं निर्वपामीति स्वाहा | केसर चन्दन लीजिये, संग कपूर घसाय | अलि पंकति आवत घनी, वास सुगन्ध सुहाय ॥क्षमा.॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्-चारित्रेभ्यो नमः चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा | शालि अखण्डित लीजिये,कंचन थाल भराय | जिनपद पूजों भाव सौं, अक्षत पद को पाय ॥क्षमा. ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्-चारित्रेभ्यो नमः अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा | पारिजात अरु केतकी, पहुप सुगन्ध गुलाब | श्रीजिनचरण-सरोज कूँ, पूज हर्ष चित चाव ॥क्षमा.॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्-चारित्रेभ्यो नमः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा | शक्कर घृत सुरभी तना,व्यंजन षड्रस स्वाद | जिनके निकट चढ़ाय कर, हिरदे धरि आह्लाद ॥क्षमा.॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्-चारित्रेभ्यो नमः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा | हाटकमय दीपक रचो, बाति कपूर सुधार | शोधित घृत कर पूजिये, मोह-तिमिर निरवार ॥क्षमा.॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्-चारित्रेभ्यो नमः दीपं निर्वपामीति स्वाहा | कृष्णागर करपूर हो, अथवा दशविधि जान | जिन-चरणन ढिग खेइये, अष्ट-कर्म की हान ॥क्षमा.॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्-चारित्रेभ्यो नमः धूपं निर्वपामीति स्वाहा | केला अम्ब अनार ङ्गल, नारिकेल ले दाख | अग्र धरो जिनपद तने, मोक्ष होय जिन भाख ॥क्षमा.॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्-चारित्रेभ्यो नमः ङ्गलं निर्वपामीति स्वाहा | जल ङ्गल आदि मिलाय के, अरघ करो हरषाय | दु:ख जलांजलि दीजिये, श्रीजिन होय सहाय ॥क्षमा.॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्-चारित्रेभ्यो नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | जयमाला दोहा उनतिस अंग की आरती,सुनो भविक चित लाय | मन वच तन सरधा करो, उत्तम नर-भव पाय ॥ चौपाई जैनधर्म में शंक न आनै, सो नि:शंकित गुण चित ठानै | जप तप कर ङ्गल वांछै नाहीं, नि:कांक्षित गुण हो जिस माहीं ॥१ ॥ पर को देख गिलानि न आनै, सो तीजा सम्यक् गुण ठानै | आन देव को रंच न मानै, सो निर्मूढता गुण पहिचानै ॥२ ॥ पर को औगुण देख जु ढाकै, सो उपगूहन श्रीजिन भाखै | जैनधर्म तैं डिगता देखै, थापै बहुरि स्थिति कर लेखै ॥३ ॥ जिन-धरमी सौं प्रीति निवहिये, गउ-बच्छवत वच्छल कहिये | ज्यों त्यों करि उद्योत बढ़ावै, सो प्रभावना अंग कहावै ॥४ ॥ अष्ट अंग यह पाले जोई, सम्यग्दृष्टी कहिये सोई | अब गुण आठ ज्ञान के कहिये, भाखे श्रीजिन मन में गहिये ॥५ ॥ व्यंजन अक्षर सहित पढ़ीजै, व्यंजन-व्यंजित अंग कहीजै | अर्थ सहित शुध शब्द उचारै, दूजा अर्थ समग्रह धारै ॥६ ॥ तदुभय तीजा अंग लखीजै, अक्षर-अर्थ सहित जु पढीजै | चौथा कालाध्ययन विचारै, काल समय लखि सुमरण धारै ॥७ ॥ पंचम अंग उपधान बतावै, पाठ सहित तब बहु ङ्गल पावै | षष्ठम विनय सुलब्धि सुनीजै, वाणी बहुत विनय सु पढ़ीजै ॥८ ॥ जापै पढ़ै न लोपै जाई, अंग सप्तम गुरुवाद कहाई | गुर की बहुत विनय जु करीजै, सो अष्टम अंग धर सुख लीजै ॥९ ॥ यह आठों अंग-ज्ञान बढ़ावै, ज्ञाता मन वच तन कर ध्यावै | अब आगे चारित्र सुनीजै, तेरह-विध धर शिव-सुख लीजै ॥१० ॥ छहों काय की रक्षा कर है, सोई अहिंसा व्रत चित धर है | हित मित सत्य वचन मुख कहिये, सो सतवादी केवल लहिये ॥११ ॥ मन वच काय न चोरी करिये, सोई अचौर्य-व्रत चित धरिये | मनमथ-भय मन रंच न आनै, सो मुनि ब्रह्मचर्य व्रत ठानै ॥१२ ॥ परिग्रह देख न मूर्छित होई, पंच महाव्रत-धारक सोई | महाव्रत ये पॉंचों सु खरे हैं, सब तीर्थंकर इनको करे हैं ॥१३ ॥ मन में विकल्प रंच न होई, मनोगुप्ति मुनि कहिये सोई | वचन अलीक रंच नहिं भाखैं, वचन गुप्ति सो मुनिवर राखैं ॥१४ ॥ कायोत्सर्ग परीषह सहि हैं, ता मुनि काय-गुप्ति जिन कहि हैं | पंच समिति अब सुनिये भाई, अर्थ सहित भाखों जिनराई ॥१५ ॥ हाथ चार जब भूमि निहारैं, तब मुनि ईर्यापथ पद धारैं | मिष्ट वचन मुख बोलें सोई, भाषा-समिति तास मुनि होई ॥१६ ॥ भोजन छियालिस दूषण टारैं, सो मुनि एषण शुद्धि विचारैं | देखिके पोथी ले अरु धर हैं, सो आदान-निक्षेपण वर हैं ॥१७ ॥ मल-मूत्र एकान्त जु डारें, परतिष्ठापन समिति सँभारें | यह सब अंग उनतीस कहे हैं, जिन भाखे गणधर ने गहे हैं ॥१८ ॥ आठ-आठ-तेरहविधि जानो, दर्शन-ज्ञान-चरित्र सु ठानो | तातैं शिवपुर पहुँचो जाई, रत्नत्रय की यह विधि भाई ॥१९ ॥ रत्नत्रय पूरण जब होई, क्षमा क्षमा करियो सब कोई | चैत माघ भादों त्रय बारा, क्षमा क्षमा हम उर में धारा ॥२० ॥ दोहा यह क्षमावणी आरती, पढ़ै सुनै जो कोय | कहे ‘मल्ल’ सरधा करो, मुक्ति-श्री-फल होय ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्-चारित्रेभ्यो नमः अनर्घपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | सोरठा दोष न गहियो कोय, गुण गह पढ़िये भाव सौं | भूल चूक जो होय, अर्थ विचारि जु शोधिये ॥ पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् |