देव-शास्त्र-गुरु पूजन अडिल्ल छन्द प्रथम देव अरहंत सुश्रुत सिद्धान्त जू, गुरु निरग्रंथ महंत मुकतिपुर-पंथ जू | तीन रतन जगमाँहि सु ये भवि ध्याइये, तिनकी भक्ति प्रसाद परम पद पाइये ॥ दोहा पूजों पद अरहंत के, पूजों गुरुपद सार | पूजों देवी सरस्वती, नित प्रति अष्ट प्रकार ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | गीता छन्द सुरपति उरग नरनाथ तिन-करि, वन्दनीक सुपदप्रभा, अति शोभनीक सुवरण उज्ज्वल, देख छवि मोहित सभा | वर नीर क्षीर-समुद्र घट भरि, अग्र तसु बहु विधि नचूँ, अरहंत श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ दोहा मलिन वस्तु हर लेत सब जलस्वभाव मल छीन | जासों पूजों परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा | जे त्रिजग - उदर मँझार प्रानी, तपत अति दुद्धर खरे, तिन अहित-हरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे | तसु भ्रमर-लोभित घ्राण पावन, सरस चन्दन घसि सचूँ, अरहंत श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ चंदन शीतलता करै तपत वस्तु परवीन | जासों पूजों परमपद, देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा | यह भव- समुद्र अपार तारण, के निमित सुविधि ठई | अति दृढ़परम-पावन जथारथ, भक्ति वर नौका सही ॥ उज्ज्वल अखंडित सालि तंदुल, पुंज धरि त्रयगुण जचूँ | अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ तंदुल सालि सुगंध अति, परम अखंडित बीन | जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा | जे विनयवंत सुभव्य- उर- अंबुज प्रकाशन भान हैं | जे एक मुख चारित्र भाषत, त्रिजग माहिं प्रधान हैं | लहि कुन्द-कमलादिक पहुप, भव-भव कुवेदन सों बचूँ | अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ विविधभॉंति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन | जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा | अति सबल मद- कंदर्प जाको, क्षुधा- उरग अमान हैं | दुस्सह भयानक तासु नाशन को सुगरुड समान हैं ॥ उत्तम छहों रस युक्त नित, नैवेद्य करि घृत में पचूँ | अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ नानाविधि संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन | जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा | जे त्रिजग- उद्यम नाश कीने, मोह- तिमिर महाबली | तिहि कर्मघाती ज्ञानदीप- प्रकाशजोति प्रभावली ॥ इह भॉंति दीप प्रजाल कंचन, के सुभाजन में खचूँ | अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ स्वपरप्रकाशक ज्योति अति, दीपक तमकरि हीन | जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा | जो कर्म- ईंधन दहन अग्नि- समूह सम उद्धत लसै | वर धूप तासु सुगंधिताकरि, सकल परिमलता हँसै ॥ इह भाँति धूप चढ़ाय नित भव- ज्वलन माँहि नहीं पचूँ। अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ अग्निमाँहिं परिमल दहन, चंदनादि गुणलीन | जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा | लोचन सुरसना घ्राण उर, उत्साह के करतार हैं | मोपै न उपमा जाय वरणी, सकल फल गुणसार हैं ॥ सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, परम अमृतरस सचूँ | अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ जे प्रधान फलफल विषैं, पंचकरण रस लीन | जासों पूजों परमपद देवशास्त्र गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा | जल परम उज्ज्वल गन्ध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ | वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरूँ ॥ इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मचूँ | अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ आठों दुखदानी, आठनिशानी, तुम ढिग आन निवारन हो, दीनन निस्तारन अधम उधारन ‘द्यानत’ तारन कारन हो | प्रभु अन्तरजामी, त्रिभुवननामी, सब के स्वामी दोष हरो, यह अरज सुनीजै ढील न कीजै, न्यायकरी जै,दया करो ॥ वसुविधि अर्घ संजोय कै, अति उछाह मन कीन | जासों पूजों परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा | जयमाला देव-शास्त्र-गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार | भिन्न भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुण विस्तार ॥ पद्धरि छन्द चउकर्म कि त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि | जे परम सुगुण हैं अनंतधीर,कहवत के छ्यालिस गुणगंभीर ॥१ ॥ शुभ समवसरण शोभा अपार, शत-इन्द्र नमत कर सीस धार | देवाधिदेव अरहन्त देव, वन्दों मन वच तन कर सु-सेव ॥२ ॥ जिनकी धुनि ह्वै ओंकाररूप, निरअक्षरमय महिमा अनूप | दशअष्ट महाभाषा समेत, लघु भाषा सात शतक सुचेत ॥३ ॥ सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूँथे बारह सुअंग | रवि शशि न हरै सो तम हराय, सो शास्त्र नमो बहु प्रीति ल्याय ॥४|| गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रत्नत्रयनिधि अगाध | संसार देह वैराग्य धार, निरवांछि तपैं शिव-पद निहार ॥५ ॥ गुण छत्तिस पच्चिस आठबीस,भव तारनतरन जिहाज ईश | गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरुनाम जपो मन वचन काय ॥६ ॥ सोरठा कीजे शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरै | ‘द्यानत’ सरधावान, अजर-अमरपद भोगवै ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्घपदप्राप्तये महाऽर्घं निर्वपामीति स्वाहा | दोहा श्रीजिन के परसाद तैं सुखी रहैं सब जीव | यातैं मन वचन तैं, सेवो भव्य सदीव ॥ ॥पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ॥ |