श्री पार्श्वनाथ पूजन हे पार्श्वनाथ ! हे अश्वसेन-सुत, करुणासागर तीर्थंकर| हे सिद्धशिला के अधिनायक, हे ज्ञान-उजागर तीर्थंकर॥ हमने भावुकता में भरकर, तुमको हे नाथ पुकारा है| प्रभुवर ! गाथा की गंगा से, तुमने कितनों को तारा है॥ हम द्वार तुम्हारे आये हैं, करुणा कर नेक निहारो तो| मेरे उर के सिंहासन पर, पग धारो नाथ ! पधारो तो॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवरत अवतरत संवौषट् (आह्वाननम्)| ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः (संस्थापनम्)| ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट्| मैं लाया निर्मल जलधारा, मेरा अंतर निर्मल कर दो| मेरे अंतर को हे भगवन्, शुचि-सरल भावना से भर दो॥ मेरे इस आकुल-अंतर को, दो शीतल सुखमय शांति प्रभो| अपनी पावन अनुकम्पा से, हर लो मेरी भव-भ्रांति प्रभो| ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्व.॥ प्रभु ! पास तुम्हारे आया हूँ, भव-भव संताप सताया हूँ| तव पद-चंदन के हेतु प्रभो ! मलयागिरि-चंदन लाया हूँ॥ अपने पुनीत चरणाम्बुज की, हमको कुछ रेणु प्रदान करो| हे संकटमोचन तीर्थंकर ! मेरे मन के संताप हरो॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय संसारतार-विनाशनाय चंदनं निर्व. स्वाहा॥ प्रभुवर ! क्षणभंगुर वैभव को, तुमने क्षण में ठुकराया है| निज-तेज तपस्या से तुमने, अभिनव अक्षय-पद पाया है॥ अक्षय हों मेरे भक्ति-भाव, प्रभु-पद की अक्षय-प्रीति मिले| अक्षय प्रतीति रवि-किरणों से, प्रभु मेरा मानस-कुंज खिले॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्व. स्वाहा॥ यद्यपि शतदल की सुषमा से, मानस-सर शोभा पाता है| पर उसके रस में ङ्गँस मधुकर, अपने प्रिय-प्राण गँवाता है॥ हे नाथ ! आपके पद-पंकज, भवसागर पार लगाते हैं| इस हेतु आपके चरणों में, श्रद्धा के सुमन चढ़ाते हैं॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्व. स्वाहा॥ व्यंजन के विविध समूह प्रभो ! तन की कुछ क्षुधा मिटाते हैं| चेतन की क्षुधा मिटाने में प्रभु ! ये असङ्गल रह जाते हैं॥ इनके आस्वादन से प्रभु, मैं संतुष्ट नहीं हो पाया हूँ| इस हेतु आपके चरणों में, नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्व. स्वाहा॥ प्रभु दीपक की मालाओं से, जग-अधंकार मिट जाता है| पर अंतर्मन का अंधकार, इनसे न दूर हो पाता है॥ यह दीप सजाकर लाए हैं, इनमें प्रभु दिव्य-प्रकाश भरो| मेरे मानस-पट पर छाए, अज्ञान-तिमिर का नाश करो॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्व. स्वाहा॥ यह धूप सुगन्धित द्रव्यमयी, नभमंडल को महकाती है| पर जीवन-अघ की ज्वाला में, ईंधन बनकर जल जाती है॥ प्रभुवर इसमें वह तेज भरो, जो अघ को ईंधन कर डाले| हे वीर ! विजेता कर्मों के, हे मुक्ति-रमा वरने वाले॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्व. स्वाहा॥ यों तो ऋतुपति ऋतु-फल से, उपवन को भर जाता है| पर अल्प-अवधि का ही झोंका, उनको निष्फल कर जाता है॥ दो सरस-भक्ति का ङ्गल प्रभुवर, जीवन-तरु तभी सफल होगा| सहजानंद-सुख से भरा हुआ, इस जीवन का प्रतिफल होगा॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्व. स्वाहा॥ पथ की प्रत्येक विषमता को, मैं समता से स्वीकार करूं| जीवन-विकास के प्रिय-पथ की, बाधाओं का परिहार करूँ॥ मैं अष्ट-कर्म-आवरणों का, प्रभुवर आतंक हटाने को| वसु-द्रव्य संजोकर लाया हूँ, चरणों में नाथ चढ़ाने को॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्व. स्वाहा॥ पंचकल्याणक-अर्घ्यावली वामादेवी के गर्भ में, आये दीनानाथ| चिर-सनाथ जगती हुई, सजग-समोद-सनाथ॥ अज्ञानमय इस लोक में, आलोक-सा छाने लगा| होकर मुहित सुरपति नगर में, रत्न बरसाने लगा॥ गर्भस्थ बालक की प्रभा, प्रतिभा प्रकट होने लगी| नभ से निशा की कालिमा, अभिनव-उषा धोने लगी॥ ॐ ह्रीं वैशाखकृष्ण-द्वितीयायांगर्भमंगल-मंडिताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥ द्वार-द्वार पर सज उठे, तोरण वंदनवार| काशी नगरी में हुआ, पार्श्व-प्रभु अवतार॥ प्राची दिशा के अंग में, नूतन-दिवाकर आ गया| भविजन-जलज विकसित हुए, जग में उजाला छा गया॥ भगवान् के अभिषेक को, जल क्षीरसागर ने दिया| इन्द्रादि ने है मेरु पर, अभिषेक जिनवर का किया॥ ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥ निरख अथिर-संसार को, गृह-कुटुम्ब सब त्याग| वन में जा दीक्षा धरी, धारण किया विराग॥ निज-आत्मसुख के स्रोत में, तन्मय प्रभु रहने लगे| उपसर्ग और परीषहों को, शांति से सहने लगे॥ प्रभु की विहार वनस्थली, तप से पुनीता हो गई| कपटी कमठ-शठ की कुटिलता, भी विनीता हो गई॥ ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥ आत्मज्योति से हट गये, तम के पटल महान्| प्रकट प्रभाकर-सा हुआ, निर्मल केवलज्ञान॥ देवेन्द्र द्वारा विश्वहित, सम-अवसरण निर्मित हुआ| समभाव से सबको शरण का, पंथ निर्देशित हुआ॥ था शांति का वातावरण, उसमें न विकृत विकल्प थे| मानों सभी तब आत्महित के, हेतु कृत-संकल्प थे॥ ॐ ह्रीं चैत्रकृष्ण-चतुर्थीदिने केवलज्ञान-प्राप्ताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥ युग-युग के भव-भ्रमण से, देकर जग को त्राण| तीर्थंकर श्री पार्श्व ने, पाया पद-निर्वाण॥ निर्लिप्त, आज नितांत है, चैतन्य कर्म-अभाव से| है ध्यान-ध्याता-ध्येय का, किंचित् न भेद स्वभाव से॥ तव पादपद्मों की प्रभु, सेवा सतत पाते रहे| अक्षय असीमानंद का, अनुराग अपनाते रहे॥ ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ल-सप्तम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥ वंदना-गीत अनादिकाल से कर्मों का मैं सताया हूँ| इसी से आपके दरबार आज आया हँ| न अपनी भक्ति न गुणगान का भरोसा है| दयानिधान श्री भगवान् का भरोसा है॥ इक आसन लेकर आया हूँ कर्म कटाने के लिए| भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिए|१| जल न चंदन और अक्षत पुष्प भी लाया नहीं| है नहीं नैवेद्य-दीप अरु धूप-फल पाया नहीं| हृदय के टूटे हुए उद्गार केवल साथ हैं| और कोई भेंट के हित अर्घ्य सजवाया नहीं| हे यही फल फूल जो समझो चढ़ाने के लिए| भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये |२| माँगना यद्यपि बुरा समझा किया मैं उम्रभर| किन्तु अब जब माँगने पर बाँधकर आया कमर॥ और फिर सौभाग्य से जब आप-सा दानी मिला| तो भला फिर माँगने में आज क्यों रक्खूँ कसर॥ प्रार्थना है आप ही जैसा बनाने के लिये| भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये|३| यदि नहीं यह दान देना आपको मंजूर है| और फिर कुछ माँगने से दास ये मजबूर है॥ किन्तु मुँह माँगा मिलेगा मुझको ये विश्वास है| क्योंकि लौटाना न इस दरबार का दस्तूर है| प्रार्थना है कर्म-बंधन से छुड़ाने के लिए| भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये|४| हो न जब तक माँग पूरी नित्य सेवक आयेगा| आपके पद-कंज में ‘पुष्पेन्दु’ शीश झुकायेगा॥ है प्रयोजन आपको यद्यपि न भक्ति से मेरी| किन्तु फिर भी नाथ मेरा तो भला हो जायेगा॥ आपका क्या जायेगा बिगड़ी बनाने के लिए| भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये|५| ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा| ॥इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपेत्॥ |