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श्री पार्श्‍वनाथ जिनपूजन-1

श्री पार्श्‍वनाथ पूजन

हे पार्श्‍वनाथ ! हे अश्‍वसेन-सुत, करुणासागर तीर्थंकर|

हे सिद्धशिला के अधिनायक, हे ज्ञान-उजागर तीर्थंकर॥

हमने भावुकता में भरकर, तुमको हे नाथ पुकारा है|

प्रभुवर ! गाथा की गंगा से, तुमने कितनों को तारा है॥

हम द्वार तुम्हारे आये हैं, करुणा कर नेक निहारो तो|

मेरे उर के सिंहासन पर, पग धारो नाथ ! पधारो तो॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवरत अवतरत संवौषट् (आह्वाननम्)|

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः (संस्थापनम्)|

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट्|

मैं लाया निर्मल जलधारा, मेरा अंतर निर्मल कर दो|

मेरे अंतर को हे भगवन्, शुचि-सरल भावना से भर दो॥

मेरे इस आकुल-अंतर को, दो शीतल सुखमय शांति प्रभो|

अपनी पावन अनुकम्पा से, हर लो मेरी भव-भ्रांति प्रभो|

ॐ ह्रीं श्री पार्श्‍वनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्व.॥

प्रभु ! पास तुम्हारे आया हूँ, भव-भव संताप सताया हूँ|

तव पद-चंदन के हेतु प्रभो ! मलयागिरि-चंदन लाया हूँ॥

अपने पुनीत चरणाम्बुज की, हमको कुछ रेणु प्रदान करो|

हे संकटमोचन तीर्थंकर ! मेरे मन के संताप हरो॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय संसारतार-विनाशनाय चंदनं निर्व. स्वाहा॥

प्रभुवर ! क्षणभंगुर वैभव को, तुमने क्षण में ठुकराया है|

निज-तेज तपस्या से तुमने, अभिनव अक्षय-पद पाया है॥

अक्षय हों मेरे भक्ति-भाव, प्रभु-पद की अक्षय-प्रीति मिले|

अक्षय प्रतीति रवि-किरणों से, प्रभु मेरा मानस-कुंज खिले॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्व. स्वाहा॥

यद्यपि शतदल की सुषमा से, मानस-सर शोभा पाता है|

पर उसके रस में ङ्गँस मधुकर, अपने प्रिय-प्राण गँवाता है॥

हे नाथ ! आपके पद-पंकज, भवसागर पार लगाते हैं|

इस हेतु आपके चरणों में, श्रद्धा के सुमन चढ़ाते हैं॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्व. स्वाहा॥

व्यंजन के विविध समूह प्रभो ! तन की कुछ क्षुधा मिटाते हैं|

चेतन की क्षुधा मिटाने में प्रभु ! ये असङ्गल रह जाते हैं॥

इनके आस्वादन से प्रभु, मैं संतुष्ट नहीं हो पाया हूँ|

इस हेतु आपके चरणों में, नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्व. स्वाहा॥

प्रभु दीपक की मालाओं से, जग-अधंकार मिट जाता है|

पर अंतर्मन का अंधकार, इनसे न दूर हो पाता है॥

यह दीप सजाकर लाए हैं, इनमें प्रभु दिव्य-प्रकाश भरो|

मेरे मानस-पट पर छाए, अज्ञान-तिमिर का नाश करो॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्व. स्वाहा॥

यह धूप सुगन्धित द्रव्यमयी, नभमंडल को महकाती है|

पर जीवन-अघ की ज्वाला में, ईंधन बनकर जल जाती है॥

प्रभुवर इसमें वह तेज भरो, जो अघ को ईंधन कर डाले|

हे वीर ! विजेता कर्मों के, हे मुक्ति-रमा वरने वाले॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्व. स्वाहा॥

यों तो ऋतुपति ऋतु-फल से, उपवन को भर जाता है|

पर अल्प-अवधि का ही झोंका, उनको निष्फल कर जाता है॥

दो सरस-भक्ति का ङ्गल प्रभुवर, जीवन-तरु तभी सफल होगा|

सहजानंद-सुख से भरा हुआ, इस जीवन का प्रतिफल होगा॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्व. स्वाहा॥

पथ की प्रत्येक विषमता को, मैं समता से स्वीकार करूं|

जीवन-विकास के प्रिय-पथ की, बाधाओं का परिहार करूँ॥

मैं अष्ट-कर्म-आवरणों का, प्रभुवर आतंक हटाने को|

वसु-द्रव्य संजोकर लाया हूँ, चरणों में नाथ चढ़ाने को॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्व. स्वाहा॥

पंचकल्याणक-अर्घ्यावली

वामादेवी के गर्भ में, आये दीनानाथ|

चिर-सनाथ जगती हुई, सजग-समोद-सनाथ॥

अज्ञानमय इस लोक में, आलोक-सा छाने लगा|

होकर मुहित सुरपति नगर में, रत्न बरसाने लगा॥

गर्भस्थ बालक की प्रभा, प्रतिभा प्रकट होने लगी|

नभ से निशा की कालिमा, अभिनव-उषा धोने लगी॥

ॐ ह्रीं वैशाखकृष्ण-द्वितीयायांगर्भमंगल-मंडिताय श्री पार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥

द्वार-द्वार पर सज उठे, तोरण वंदनवार|

काशी नगरी में हुआ, पार्श्‍व-प्रभु अवतार॥

प्राची दिशा के अंग में, नूतन-दिवाकर आ गया|

भविजन-जलज विकसित हुए, जग में उजाला छा गया॥

भगवान् के अभिषेक को, जल क्षीरसागर ने दिया|

इन्द्रादि ने है मेरु पर, अभिषेक जिनवर का किया॥

ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्री पार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥

निरख अथिर-संसार को, गृह-कुटुम्ब सब त्याग|

वन में जा दीक्षा धरी, धारण किया विराग॥

निज-आत्मसुख के स्रोत में, तन्मय प्रभु रहने लगे|

उपसर्ग और परीषहों को, शांति से सहने लगे॥

प्रभु की विहार वनस्थली, तप से पुनीता हो गई|

कपटी कमठ-शठ की कुटिलता, भी विनीता हो गई॥

ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्री पार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥

आत्मज्योति से हट गये, तम के पटल महान्|

प्रकट प्रभाकर-सा हुआ, निर्मल केवलज्ञान॥

देवेन्द्र द्वारा विश्‍वहित, सम-अवसरण निर्मित हुआ|

समभाव से सबको शरण का, पंथ निर्देशित हुआ॥

था शांति का वातावरण, उसमें न विकृत विकल्प थे|

मानों सभी तब आत्महित के, हेतु कृत-संकल्प थे॥

ॐ ह्रीं चैत्रकृष्ण-चतुर्थीदिने केवलज्ञान-प्राप्ताय श्री पार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥

युग-युग के भव-भ्रमण से, देकर जग को त्राण|

तीर्थंकर श्री पार्श्‍व ने, पाया पद-निर्वाण॥

निर्लिप्त, आज नितांत है, चैतन्य कर्म-अभाव से|

है ध्यान-ध्याता-ध्येय का, किंचित् न भेद स्वभाव से॥

तव पादपद्मों की प्रभु, सेवा सतत पाते रहे|

अक्षय असीमानंद का, अनुराग अपनाते रहे॥

ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ल-सप्तम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्री पार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥

वंदना-गीत

अनादिकाल से कर्मों का मैं सताया हूँ|

इसी से आपके दरबार आज आया हँ|

न अपनी भक्ति न गुणगान का भरोसा है|

दयानिधान श्री भगवान् का भरोसा है॥

इक आसन लेकर आया हूँ कर्म कटाने के लिए|

भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिए|१|

जल न चंदन और अक्षत पुष्प भी लाया नहीं|

है नहीं नैवेद्य-दीप अरु धूप-फल पाया नहीं|

हृदय के टूटे हुए उद्गार केवल साथ हैं|

और कोई भेंट के हित अर्घ्य सजवाया नहीं|

हे यही फल फूल जो समझो चढ़ाने के लिए|

भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये |२|

माँगना यद्यपि बुरा समझा किया मैं उम्रभर|

किन्तु अब जब माँगने पर बाँधकर आया कमर॥

और फिर सौभाग्य से जब आप-सा दानी मिला|

तो भला फिर माँगने में आज क्यों रक्खूँ कसर॥

प्रार्थना है आप ही जैसा बनाने के लिये|

भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये|३|

यदि नहीं यह दान देना आपको मंजूर है|

और फिर कुछ माँगने से दास ये मजबूर है॥

किन्तु मुँह माँगा मिलेगा मुझको ये विश्‍वास है|

क्योंकि लौटाना न इस दरबार का दस्तूर है|

प्रार्थना है कर्म-बंधन से छुड़ाने के लिए|

भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये|४|

हो न जब तक माँग पूरी नित्य सेवक आयेगा|

आपके पद-कंज में ‘पुष्पेन्दु’ शीश झुकायेगा॥

है प्रयोजन आपको यद्यपि न भक्ति से मेरी|

किन्तु फिर भी नाथ मेरा तो भला हो जायेगा॥

आपका क्या जायेगा बिगड़ी बनाने के लिए|

भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये|५|

ॐ ह्रीं श्री पार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा|

॥इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपेत्॥

 

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