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श्री पार्श्‍वनाथ जिनपूजन

श्री पार्श्‍वनाथ जिनपूजन

गीता छन्द

वर स्वर्ग प्राणत को विहाय, सुमात वामा सुत भये,

अश्‍वसेन के पारस जिनेश्‍वर, चरन जिनके सुर नये |

नौ हाथ उन्नत तन विराजै, उरग लच्छन पद लसैं,

थापूँ तुम्हें जिन आय तिष्ठो कर्म मेरे सब नसैं ॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतरतु अवतरतु संवौषट् |

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठतु तिष्ठतु ठ: ठ: |

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भवतु भवतु वषट् |

अथाष्टक छन्द नाराच

क्षीरसोम के समान अम्बुसार लाइए |

हेमपात्र धारिकैं सु आपको चढ़ाइए |

पार्श्‍वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा |

दीजिये निवास मोक्ष भूलिए नहीं कदा ॥

ॐ ह्रीं श्री पार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामि |

चंदनादि   केशरादि   स्वच्छ   गंध लीजिए |

आपचरण चर्च मोहताप को हनीजिए ॥पार्श्‍व. ॥

ॐ ह्रीं श्री पार्श्‍वनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामि |

फेन चंद के समान अक्षतान् लाइकैं |   

चर्न के समीप सार पूंज को रचाइकैं ॥पार्श्‍व. ॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामि |

केवड़ा गुलाब और केतकी चुनाइए |

धार चर्न के समीप काम को नसाइए ॥ पार्श्‍व. ॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पाणि निर्वपामि |

घेवरादि   बावरादि   मिष्ठ   सर्पि   में   सनें |  

आप चर्ण अर्चते क्षुधादि रोग को हनें ॥ पार्श्‍व. ॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामि |

लाय रत्न दीप को सनेह पूर के भरूँ |

वातिका कपूर बारि मोह ध्वांत को हरूँ ॥ पार्श्‍व. ॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामि |

धूप गंध लेय कैं सुअग्नि संग जारिये |  

तास   धूप   के सुसंग   कर्म अष्ट वारिये ॥ पार्श्‍व. ॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामि |

खारकादि   चिर्भटादि रत्नथाल में भरूँ |   

हर्षधारिकैं जजूं सुमोक्ष सौख्य को वरूँ ॥पार्श्‍व. ॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामि |

नीर गंध   अक्षतान्   पुष्प   चरु लीजिये | 

दीप धूप श्रीफलादि अर्घ तैं जजीजिये ॥पार्श्‍व. ॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्राय अनर्घपद-प्राप्तये अर्घं निर्वपामि |

पंचकल्याणक

शुभ प्राणत स्वर्ग विहाये, वामा माता उर आये |

वैशाख तनी दुति कारी, हम पूजें विघ्न निवारी ॥

ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णद्वितीयायां गर्भम‘लमण्डिताय श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्राय अर्घं |

जनमें त्रिभुवन सुखदाता, एकादशि पौष विख्याता |

श्यामा तन अद्भुत राजै, रवि कोटिक तेज सु लाजै ॥

ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममङ्गलमण्डिताय श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामि|

कलि पौष एकादशि आई, तब बारह भावन भाई |

अपने कर लोंच सु कीना, हम पूजैं चरन जजीना ॥

ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपोम‘लमण्डिताय श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामि |

कलि चैत चतुर्थी आई, प्रभु केवल ज्ञान उपाई |

तब प्रभु उपदेश जु कीना,भवि जीवन को सुख दीना ॥

ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णचतुर्थ्यां केवलज्ञानमण्डिताय श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामि |

सित सावन सातैं आई, शिवनारि वरी जिनराई |

सम्मेदाचल हरि माना, हम पूजैं मोक्ष कल्याना ॥

ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लसप्तम्यां मोक्षमङ्गलमण्डिताय श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्राय अर्घं |

जयमाला

पारसनाथ जिनेन्द्र तने वच, पौनभखी जरते सुन पाये |

कर्यो सरधान लह्यो पद आन, भये पद्मावति शेष कहाये ॥

नाम प्रताप टरें संताप सु, भव्यन को शिवशर्म दिखाये |

हो अश्‍वसेन के नंद भले, गुण गावत हैं तुमरे हरषाये ॥

दोहा

केकी -कंठ समान छवि, वपु उतंग नव हाथ |

लक्षण उरग निहार पग, वंदौं पारसनाथ ॥

पद्धरि छन्द

रची नगरी षट् मास अगार,बने चहुँ गोपुर शोभ अपार |

सु कोट तनी रचना छवि देत, कंगूरन पै लहकैं बहुकेत ॥१ ॥

बनारस की रचना जु अपार, करी बहु भॉंति धनेश तैयार |

तहाँ विश्‍वसेन नरेन्द्र उदार, करैं सुख वाम सु दे पटनार ॥२ ॥

तज्यो तुम प्रानत नाम विमान, भये तिनके घर नंदन आन |

तबै सुर इंद्र नियोगनि आय,गिरीन्द करी विधि न्हौन सुजाय ॥३ ॥

पिता घर सौंप गये निज धाम, कुबेर करै वसु जाम सुकाम |

बढ़े जिन दोज मयंक समान, रमैं बहु बालक निर्जर आन ॥४ ॥

भये जब अष्टम वर्ष कुमार, धरे अणुव्रत महा सुखकार |

पिता जब आन करी अरदास, करो तुम ब्याह वरो मम आस ॥ ५ ॥

करी तब नाहिं रहे जग चंद, किये तुम काम कषाय जु मंद |

चढ़े गजराज कुमारन संग, सुदेखत गंगतनी सुतरंग ॥ ६ ॥

लख्यो इक रंक करै तपघोर, चहूँ दिशि अगनि बलै अति जोर |

कहै जिननाथ अरे सुन भ्रात, करै बहुजीवन की मत घात ॥ ७ ॥

भयो तब कोप कहै कित जीव, जले तब नाग दिखाय सजीव |

लख्यो यह कारण भावन भाय, नये दिव ब्रह्म-ऋषी सुर आय ॥ ८ ॥

तबहिं सुर चार प्रकार नियोग, धरी शिविका निजकंध मनोग |

कियो वन माँहिं निवास जिनंद, धरे व्रत चारित आनंदकंद ॥९ ॥

गहें तहँ अष्टम के उपवास, गये धनदत्त तने जु अवास |

दियो पयदान महासुखकार, भई पन वृष्टि तहाँ तिह वार ॥१० ॥

गये तब कानन मॉंहिं दयाल, धर्यो तुम योग सबहि अघ टाल |

तबै वह धूम सुकेतु अयान, भयो कमठाचर को सुर आन ॥११ ॥

करै नभ गौन लखे तुम धीर, जु पूरब बैर विचार गहीर |

कियो उपसर्ग भयानक घोर, चली बहु तीक्षण पवन झकोर ॥१२ ॥

रह्यो दशहूँ दिश में तम छाय, लगी बहुअग्नि लखी नहिं जाय |

सुरुण्डन के बिन मुण्ड दिखाय, पड़ें जल मूसलधार अथाय ॥ १३ ॥

तबै पद्मावति कंत धनंद, नये जुग आय तहाँ जिनचंद |

भग्यो तब रंक सु देखत हाल, लह्यो तब केवलज्ञान विशाल ॥१४ ॥

दियो उपदेश महा हितकार, सुभव्यन बोध सम्मेद पधार |

सुवर्णभद्र जू कूट प्रसिद्ध, वरी शिवनारि लही वसुरिद्ध ॥१५ ॥

जजूँ तुम चरन दोउ कर जोर, प्रभु लखिए अब ही मम ओर |

कहै ‘बखतावर रत्न’ बनाय, जिनेश हमें भव पार लगाय ॥१६ ॥

घत्ता

जय पारस देवं सुरकृत सेवं, वंदत चरण सुनागपती |

करुणा के धारी पर उपकारी, शिवसुखकारी कर्महती ॥१७ ॥

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्‍वनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घं निर्वपामि |

अडिल्ल

जो पूजै मनलाय भव्य पारस प्रभु नित ही |

ताके दुख सब जाय भीति व्यापै नहिं कित ही ॥

सुख संपत्ति अधिकाय पुत्र मित्रादिक सारे |

अनुक्रमसौं शिव लहै, ‘रतन’ इमि कहै पुकारे ॥

पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्

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