श्री अहिच्छत्र-पार्श्वनाथ-जिन पूजाहे पार्श्वनाथ करुणानिधान महिमा महान् मंगलकारी| शिवभर्तारी सुखभंडारी सर्वज्ञ सुखारी त्रिपुरारी॥ तुम धर्मसेत करुणानिकेत आनंदहेत अतिशय धारी| तुम चिदानंद आनंदकंद दुःख-द्वंद-ङ्गंद संकटहारी॥ आवाहन करके आज तुम्हें अपने मन में पधराऊँगा| अपने उर के सिंहासन पर गद-गद हो तुम्हें बिठाऊँगा॥ मेरा निर्मल-मन टेर रहा हे नाथ ! हृदय में आ जाओ| मेरे सूने मन-मंदिर में पारस-भगवान् समा जाओ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् (आह्वाननम्)| ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः (संस्थापनम्)| ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट्| भव-वन में भटक रहा हूँ मैं, भर सकी न तृष्णा की खाई| भवसागर के अथाह दुःख में, सुख की जल-बिंदु नहीं पाई॥ जिस भॉंति आपने तृष्णा पर, जय पाकर तृषा बुझाई है| अपनी अतृप्ति पर अब तुमसे, जय पाने की सुधि आई है॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्व. स्वाहा|१| क्रोधित हो क्रूर कमठ ने जब, नभ से ज्वाला बरसाई थी| उस आत्मध्यान की मुद्रा में, आकुलता तनिक न आई थी॥ विघ्नों पर बैर-विरोधों पर, मैं साम्यभाव धर जय पाऊँ| मन की आकुलता मिट जाये, ऐसी शीतलता पा जाऊँ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय संसार ताप-विनाशनाय चंदनं निर्व. स्वाहा|२| तुमने कर्मों पर जय पाकर, मोती-सा जीवन पाया है| यह निर्मलता मैं भी पाऊँ, मेरे मन यही समाया है॥ यह मेरा अस्तव्यस्त-जीवन, इसमें सुख कहीं न पाता हूँ| मैं भी अक्षय-पद पाने को, शुभ अक्षत तुम्हें चढ़ाता हूँ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्व. स्वाहा|३| अध्यात्मवाद के पुष्पों से, जीवन ङ्गुलवारी महकाई| जितना-जितना उपसर्ग सहा, उतनी-उतनी दृढ़ता आई॥ मैं इन पुष्पों से वंचित हूँ, अब इनको पाने आया हूँ| चरणों पर अर्पित करने को, कुछ पुष्प संजोकर लाया हूँ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्व. स्वाहा|४| जय पाकर चपल-इन्द्रियों पर, अंतर की क्षुधा मिटा डाली| अपरिग्रह की आलोक-शक्ति, अपने अंदर ही प्रगटा ली॥ भटकाती फिरती क्षुधा मुझे, मैं तृप्त नहीं हो पाया हूँ| इच्छाओं पर जय पाने को, मैं शरण तुम्हारी आया हूँ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्व. स्वाहा|५| अपने अज्ञान-अंधेरे में, वह कमठ फिरा मारा-मारा| व्यन्तर-विमानधारी था पर, तप के उजियारे से हारा|| मैं अंधकार में भटक रहा, उजियारा पाने आया हूँ| जो ज्योति आप में दर्शित है, वह ज्योति जगाने आया हूँ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्व. स्वाहा|६| तुमने तप के दावानल में, कर्मों की धूप जलाई है| जो सिद्ध-शिला तक जा पहुँची, वह निर्मल-गंध उड़ाई है॥ मैं कर्म-बंधनों में जकड़ा, भव-बंधन से घबराया हूँ| वसु-कर्म दहन के लिए तुम्हें, मैं धूप चढ़ाने आया हूँ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्व. स्वाहा|७| तुम महातपस्वी शांतिमूर्ति, उपसर्ग तुम्हें न डिगा पाये| तप के ङ्गल ने पद्मावति अरु, इन्द्रों के आसन कम्पाये॥ ऐसे उत्तम-ङ्गल की आशा मैं, मन में उमड़ी पाता हूँ| ऐसा शिव-सुख फल पाने को, ङ्गल की शुभ भेंट चढ़ाता हूँ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्व. स्वाहा|८| संघर्षों में उपसर्गों में तुमने, समता का भाव धरा| आदर्श तुम्हारा अमृत-बन, भक्तों के जीवन में बिखरा॥ मैं अष्टद्रव्य से पूजा का, शुभ-थाल सजा कर लाया हूँ| जो पदवी तुमने पाई है, मैं भी उस पर ललचाया हूँ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्व. स्वाहा|९| पंचकल्याणक-अर्घ्यावली बैशाख-कृष्ण-दुतिया के दिन, तुम वामा के उर में आये| श्री अश्वसेन-नृप के घर में, आनंद भरे मंगल छाये॥ ॐ ह्रीं बैशाख-कृष्ण-दुतियायां गर्भमंगल-मंडिताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा|१| जब पौष-कृष्ण-एकादशि को, धरती पर नया प्रसून खिला| भूले भटके भ्रमते जग को, आत्मोन्नति का आलोक मिला॥ ॐ ह्रीं पौषकृष्ण-एकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा|२| एकादशि-पौष-कृष्ण के दिन, तुमने संसार अथिर पाया| दीक्षा लेकर आध्यात्मिक-पथ, तुमने तप द्वारा अपनाया॥ ॐ ह्रीं पौषकृष्ण-एकादशीदिने तपोमंगल-मंडिताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा|३| अहिच्छत्र-धरा पर जी भरकर, की क्रूर कमठ ने मनमानी| तब कृष्ण-चैत्र-चतुर्थी को, पद प्राप्त किया केवलज्ञानी॥ यह वंदनीय हो गई धरा, दश-भव का बैरी पछताया| देवों ने जय-जयकारों से, सारा भूमंडल गुँजाया॥ ॐ ह्रीं चैत्रकृष्ण-चतुर्थीदिवसे श्री अहिच्छत्रतीर्थे ज्ञानसाम्राज्य-प्राप्ताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा|४| श्रावण शुक्ला सप्तमि के दिन, सम्मेद-शिखर ने यश पाया| ‘सुवरणभद्र’ कूट से जब, शिव मुक्तिरमा को परिणाया॥ ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ल-सप्तम्यां सम्मेदशिखरस्य सुवर्णभद्रकूटात् मोक्षमंगल-मंडिताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा|५| जयमाला सुर नर किन्नर गणधर फणधर, योगीश्वर ध्यान लगाते हैं| भगवान् तुम्हारी महिमा का, यशगान मुनीश्वर गाते हैं|१| जो ध्यान तुम्हारा ध्याते हैं, दुःख उनके पास न आते हैं| जो शरण तुम्हारी रहते हैं, उनके संकट कट जाते हैं|२| तुम कर्मदली तुम महाबली, इन्द्रियसुख पर जय पाई है| मैं भी तुम जैसा बन जाऊँ, मन में यह आज समाई है|३| तुमने शरीर औ’ आत्मा के, अंतर-स्वभाव को जाना है| नश्वर-शरीर का मोह तजा, निश्चय-स्वरूप पहिचाना है|४| तुम द्रव्य-मोह औ’ भाव-मोह, इन दोनों से न्यारे-न्यारे| जो पुद्गल के निमित्तकारण, वे राग-द्वेष तुम से हारे|५| तुम पर निर्जन-वन में बरसे, ओले-शोले पत्थर-पानी| आलोक तपस्या के आगे, चल सकी न शठ की मनमानी|६| यह सहन-शक्तिओं का बल है, जो तप के द्वारा आया था| जिसने स्वर्गों में देवों के, सिंहासन को कम्पाया था|७| ‘अहि’ का स्वरूप धरकर तत्क्षण, धरणेन्द्र स्वर्ग से आया था| ध्यानस्थ आपके ऊपर प्रभु, ङ्गण-मंडप बनकर छाया था|८| उपसर्ग कमठ का नष्ट किया, मस्तक पर फण-मंडप रचकर| पद्मादेवी ने उठा लिया, तुमको सिर के सिंहासन पर|९| तप के प्रभाव से देवों ने, व्यन्तर की माया विनशाई| पर प्रभो आपकी मुद्रा में, तिलमात्र न आकुलता आई|१०| उपसर्गों का आतंक तुम्हें, हे प्रभु ! तिलभर न डिगा पाया| अपनी विडम्बना पर बैरी, असफल हो मन में पछताया|११| शठ कमठ बैर के वशीभूत, भौतिक बल पर बौराया था| अध्यात्म-आत्मबल का गौरव, वह मूरख समझ न पाया था|१२| दश-भव तक जिसने बैर किया, पीड़ायें देकर मनमानी| ङ्गिर हार मानकर चरणों में, झुक गया स्वयं वह अभिमानी|१३| यह बैर महादुःखदायी है, यह बैर न बैर मिटाता है| यह बैर निरंतर प्राणी को, भवसागर में भटकाता है|१४| जिनको भव-सुख की चाह नहीं, दुःख से न जरा भय खाते हैं| वे सर्व-सिद्धियों को पाकर, भवसागर से तिर जाते हैं|१५| जिसने भी शुद्ध मनोबल से, ये कठिन परीषह झेली हैं| सब ऋद्धि-सिद्धियाँ नत होकर, उनके चरणों पर खेली हैं|१६| जो निर्विकल्प चैतन्यरूप, शिव का स्वरूप तुमने पाया| ऐसा पवित्र-पद पाने को, मेरा अंतर-मन ललचाया|१७| कार्माण-वर्गणायें मिलकर, भव-वन में भ्रमण कराती हैं| जो शरण तुम्हारी आते है, ये उनके पास न आती हैं|१८| तुमने सब बैर, विरोधों पर, समदर्शी बन जय पाई है| मैं भी ऐसी समता पाऊँ, यह मेरे हृदय समाई है|१९| अपने समान ही तुम सबका, जीवन विशाल कर देते हो| तुम हो तिखाल वाले बाबा, जग को निहाल कर देते हो|२०| तुम हो त्रिकालदर्शी तुमने, तीर्थंकर का पद पाया है| तुम हो महान् अतिशयधारी, तुम में आनंद समाया है|२१| चिन्मूरति आप अनंतगुणी, रागादि न तुमको छू पाये| इस पर भी हर शरणागत, मनमाने सुखसाधन पाये|२२| तुम रागद्वेष से दूर-दूर, इनसे न तुम्हारा नाता है| स्वयमेव वृक्ष के नीचे जग, शीतल छाया पा जाता है|२३| अपनी सुगंध क्या ङ्गूल कहीं, घर-घर आकर बिखराते हैं| सूरज की किरणों को छूकर, सुमन स्वयं खिल जाते हैं|२४| भौतिक पारसमणि तो केवल, लोहे को स्वर्ण बनाती है| हे पार्श्व ! प्रभो तुमको छूकर, आत्मा कुंदन बन जाती है|२५| तुम सर्वशक्तिधारी हो, प्रभु ऐसा बल मैं भी पाऊँगा| यदि यह बल मुझको भी दे दो, फिर कुछ न माँगने आऊँगा|२६| कह रहा भक्ति के वशीभूत, हे दयासिन्धु ! स्वीकारो तुम| जैसे तुम जग से पार हुये, मुझको भी पार उतारो तुम|२७| जिसने भी शरण तुम्हारी ली, वह खाली न रह पाया है| अपनी-अपनी आशाओं का, सबने वाँछित-फल पाया है|२८| बहुमूल्य-सम्पदायें सारी, ध्यानेवालों ने पाई हैं| पारस के भक्तों पर निधियाँ, स्वयमेव सिमटकर आई हैं|२९| जो मन पूजा करते हैं, पूजा उनको ङ्गल देती है| प्रभु-पूजा भक्त पुजारी के, सारे संकट हर लेती है|३०| जो पथ तुमने अपनाया है, वह सीधा शिव को जाता है| जो इस पथ का अनुयायी है, वह परम मोक्षपद पाता है|३१| ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा| दोहा- पार्श्वनाथ-भगवान को, जो पूजे धर ध्यान| उसे लोक-परलोक के, मिलें सकल वरदान॥ ॥इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपेत् ॥ |