श्री अभिनंदन-जिन पूजा अभिनंदन आनंदकंद, सिद्धारथ-नंदन। संवरपिता दिनंद चंद, जिहिं आवत वंदन।। नगर-अयोध्या जनम इन्द, नागिंद जु ध्यावें। तिन्हें जजन के हेत थापि, हम मंगल गावें।1। ॐ ह्रीं श्री अभिनंदन जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्(आह्वाननम्)। ॐ ह्रीं श्री अभिनंदन जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः (संस्थापनम्)। ॐ ह्रीं श्री अभिनंदन जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट्(सन्निधिकरणम्)। (छन्द गीता, हरिगीता तथा रूपमाला) पदम-द्रह-गत गंग-चंग, अभंग-धार सु धार है। कनक-मणि-नगजड़ित झारी, द्वार धार निकार है। कलुषताप-निकंद श्रीअभिनंद, अनुपम चंद है। पद-वंद ‘वृंद’ जजे प्रभू, भव-दंद-फंद निकंद है। ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।1। शीतल चंदन, कदलि-नंदन, सुजल-संग घसायके। हो सुगंध दशों दिशा में, भ्रमैं मधुकर आयके ।।क.।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।2। हीर-हिम-शशि-फेन-मुक्ता, सरिस तंदुल सेत हैं। तास को ढ़िंग पुञ्ज धारों, अक्षय पद के हेत हैं ।।क.।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्निर्व. स्वाहा।3। समर-सुभट निघटन सुकारन, सुमन सुमन-समान हैं। सुरभितैं जापैं करैं झंकार, मधुकर आन हैं ।।क.।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4। सरस ताजे नव्य गव्य, मनोज्ञ चितहर लेय जी। छुधा छेदन छिमा-छितिपति, के चरन चरचेय जी ।।क.।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5। अतत तम-मर्दन किरनवर, बोध-भानु-विकाश हैं। तुम चरन-ढ़िंग दीपक धरों, मोहि होहु स्व-पर-प्रकाश हैं ।।क.।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय मोहान्धकारविध्वंसनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6। भूर अगर कपूर चूर, सुगंध अगिनि जराय है। सब करमकाष्ठ सु काटने मिस, धूम धूम उड़ाय है ।।क.।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7। आम निंबु सदा फलादिक, पक्व पावन आन जी। मोक्षफल के हेत पूजों, जोरिके जुगपान जी ।।क.।। ॐ ह्रीं श्री अभिनंदन जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8। अष्ट-द्रव्य संवारि सुन्दर, सुजस गाय रसाल ही। नचत रचत जजों चरनजुग, नाय नाय सुभाल ही ।।क.।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।9। पंच कल्याणक-अर्घ्यावली (छन्द हरिपद) शुकल-छट्ठ बैशाख-विषैं तजि, आये श्री जिनदेव। सिद्धारथ माता के उरमें, करे सची शुचि सेव।। रतन-वृष्टि आदिक वर-मंगल, होत अनेक प्रकार। ऐसे गुननिधि को मैं पूजौं, ध्यावों बारम्बार।। ॐ ह्रीं बैशाख शुक्ल-षष्ठी दिने गर्भ मंगल-प्राप्ताय श्री अभिनंदन जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।1। माघ-शुकल-तिथि-द्वादशि के दिन, तीन-लोक-हितकार। अभिनंदन आनंदकंद तुम, लीन्हों जग-अवतार।। एक महूरत नरकमाँहि हू, पायो सब जिय चैन। कनक-वरन कपि-चिह्न-धरन, पद जजों तुम्हें दिन रैन।। ॐ ह्रीं माघशुक्ल-द्वादश्यां जन्म मंगल-प्राप्ताय श्री अभिनंदन जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।2। साढ़े-छत्तिस-लाख सु-पूरब, राजभोग वर भोग। कछु कारन लखि माघ-शुकल-द्वादशि को धार्यो जोग।। षष्टम नियम समापत करि लिय, इंद्रदत्त-घर छीर। जय-धुनि पुष्प-रतन-गंधोदक-वृष्टि सुगंध-समीर।। ॐ ह्रीं माघशुक्ल-द्वादश्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्री अभिनंदन जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।3। पौष-शुक्ल-चौदशि को घाते, घातिकरम दुःखदाय। उपजायो वरबोध जास को, केवल नाम कहाय।। समवसरन लहि बोधि-धरम कहि, भव्य जीव-सुखकंद। मोकों भवसागरतैं तारों, जय जय जय अभिनंद।। ॐ ह्रीं पौषशुक्ल-चतुर्दश्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्री अभिनंदन जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।4। जोग निरोध अघाति-घाति लहि, गिरसमेदतैं मोख। मास सकल-सुखरास कहे, बैशाख-शुकल-छठ चोख।। चतुर-निकाय आय तित कीनो, भगत-भाव उमगाय। हम पूजत इत अरघ लेय जिमि, विघन-सघन मिट जाय।। ॐ ह्रीं बैशाखशुक्ल-षष्ठीदिने मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्री अभिनंदन जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।5। जयमाला (दोहा) तुंग सु तन धनु-तीनसौ, औ पचास सुखधाम। कनक-वरन अवलौकिकैं, पुनि-पुनि करूँ प्रणाम।1। (छन्द लक्ष्मीधरा) सच्चिदानंद सद्ज्ञान सद्दर्शनी, सत्स्वरूपा लई सत्सुधा-सर्सनी। सर्व-आनंदकंदा महादेवता, जास पादाब्ज सेवैं सबैं देवता।2। गर्भ औ’ जन्म निःकर्मकल्यान में, सत्त्व को शर्म पूरे सबै थान में। वंश-इक्ष्वाकु में आप ऐसे भये, ज्यों निशा-सर्द में इन्दु स्वेच्छै ठये।3। (लक्ष्मीवती छन्द) होत वैराग लौकांत-सुर बोधियो, फेरि शिविकासु चढ़ि गहन निज सोधियो। घाति चौघातिया ज्ञान केवल भयो, समवसरनादि धनदेव तब निरमयो।4। एक है इन्द्र नीली-शिला रत्न की, गोल साढ़ेदशै जोजने रत्न की। चारदिश पैड़िका बीस हज्जार है, रत्न के चूर का कोट निरधार है।5। कोट चहुँओर चहुँद्वार तोरन खँचे, तास आगे चहूँ मानथंभा रचे। मान मानी तजैं जास ढिंग जायके, नम्रता धार सेवें तुम्हें आयके।6। (छन्द लक्ष्मीधरा) बिंब सिंहासनों पै जहाँ सोहहीं, इन्द्र–नागेन्द्र केते मने मोहहीं। वापिका वारिसों जत्र सोहै भरीं, जास में न्हात ही पाप जावै टरी।7। तास आगें भरी खातिका वारिसों, हंस सूआदि पंखी रमैं प्यारसों। पुष्प की वाटिका बागवृक्षें जहाँ, फूल और फलें सर्व ही है तहाँ।8। कोट सौवर्ण का तास आगे खड़ा, चार दर्वाज चौ’ ओर रत्न जड़ा। चार उद्यान चारों दिशा में गना, है धुजा-पंक्ति और नाट्यशाला बना।9। तासु आगें त्रितीकोट रूपामयी, तूप नौ जास चारों दिशा में ठयी। धाम सिद्धांत-धारीन के हैं जहाँ, औ’ सभाभूमि है भव्य तिष्ठें तहाँ।10। तास आगें रची गंधकूटी महा, तीन है कट्टिनी सार-शोभा लहा। एक पै तौ निधैं ही धरी ख्यात हैं, भव्यप्रानी तहाँ लौं सबैं जात हैं।11। दूसरी पीठ पै चक्रधारी गमै, तीसरे प्रातिहारज लशै भाग में। तास पै वेदिका चार थंभान की, है बनी सर्वकल्यान के खान की।12। तासु पै हैं सुसिंघासनं भासनं, जासु पै पद्म प्राफुल्ल है आसनं। तासु पै अंतरीक्षं विराजै सही, तीन-छत्रे फिरें शीस रत्ने यही।13। वृक्ष शोकापहारी अशोकं लसै, दुंदुभी नाद औ’ पुष्प खंते खसै। देह की ज्योति से मंडलाकार है, सात भौ भव्य तामें लखै सार है।14। दिव्यवानी खिरै सर्वशंका हरै, श्रीगनाधीश झेलैं सुशक्ती धरैं। धर्मचक्री तुही कर्मचक्री हने, सर्वशक्री नमें मोदधारे घने।15। भव्य कौ बोधि सम्मेदतैं शिव गये, तत्र इन्द्रादि पूजै सुभक्तीमये। हे कृपासिंधु मोपै कृपा धारिये, घोर संसारसों शीघ्र मो तारिये।16। जय जय अभिनंदा आनंदकंदा, भवसमुद्र वर पोत इवा। भ्रम-तम शतखंडा, भानुप्रचंडा, तारि तारि जगरैन दिवा।17। ॐ ह्रीं श्री अभिनंदन जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।। (छन्द कवित्त) श्री अभिनंदन पापनिकंदन, तिनपद जो भवि जजै सुधार। ताके पुन्य-भानु वर उग्गे, दुरित-तिमिर फाटै दुःखकार।। पुत्र-मित्र धन-धान्य कमल यह, विकसै सुखद जगतहित प्यार। कछुक-काल में सो शिव पावै, पढ़ै-सुने जिन जजै निहार।18। ।।इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि।। |